Tuesday, December 17, 2013

समलैंगिकता पर सहमति यानी पशुवत जीवन का अधिकार

हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों के हिमायती लोगों की मांगों को अस्वीकार करके कानून की धारा 377 को बहाल कर दिया। अब देश में एक बहस छिड़ गई है कि समलैंगिकता अपराध है या नहीं। बहस इस बात को लेकर भी है कि समलैंगिकता व्यक्तिगत स्वतंत्रता व मानवीय अधिकार है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व देश के प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे राहुल गांधी ने समलैंगिक संबंधों का समर्थन किया है, जो आश्चर्यजनक नहीं हैं। नैतिकता व मर्यादाओं को तार-तार करने में यह परिवार नेहरू के समय से ही आगे रहा है। उनकी रंगीनमिजाजी और अवैध संबंधों की ढेर सारी कहानियां अतीत के पन्नों पर दर्ज हैं। लेडी माउंटबेटेन  और सरोजनी नायडू की पुत्री पद्मा नायडू से उनके संबंध जग जाहिर रहे। बाद में उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने एक विधर्मी से विवाह किया। राजीव गांधी को भी विदेशी महिला ही भायी।
 

देश में समलैंगिकता को लेकर एक अजीब सा उत्साह देखा जा रहा है। कई गैर सरकारी संगठन हैं जो समलैंगिकों के तथाकथित अधिकारों के लिए सक्रिय हैं। इंनका तर्क है कि समलैंगिकता एक प्राकृतिक जरूरत है, जिसे मान्यता मिलनी चाहिए। वे स्टीव डेविस सहित दुनिया के कई प्रसिध्द समलैंगिकों का हवाला देते हैं और कहते हैं कि इन्हें मानसिक विकृत या बीमार कैसे माना जा सकता है। इनका तर्क यह भी है कि पूरी दुनिया की तरह भारत में भी समलैंगिकों की संख्या बढ़ रही है तो क्यों न इसे भारत में भी कानूनी व सामाजिक मान्यता मिल जाए। मेरा मानना है कि समलैंगिक आकर्षण एक मनोविकार के अलावा कुछ नहीं है और इसका उपचार किया जाना चाहिए। लेकिन यह उपचार तभी संभव होगा, जब समलैंगिक इसे उचित ठहराने के बजाय मानेंगे कि यह गलत है।
 

यह ध्यान रखना होगा कि जिन देशों में समलैंगिक संबंध तेजी से बढ़ रहे हैं वहां एड्स की महामारी भी तेजी से पांव पसार रही है।
 

चिकित्सकों के अनुसार गुदा मैथुन से मलाशय के नाजुक तंतु क्षतिग्रस्त हो जाते हैं जिससे कई कई गम्भीर बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है- जिनमें  एड्स, सिफलिस, एचआईवी इंफेक्शन आदि शामिल हैं।
 

मैंने एक व्यक्ति के बारे में सुना था, जो पशुओं के साथ सेक्स का प्रयास करता था। कल यदि ऐसे ढेर सारे लोग हो जाएं और वे एकजुट होकर इसे सामान्य जरूरत बताने लगें और सामाजिक मान्यता की मांग करने लगें तो क्या होगा।
 

जहां तक पश्चिम का सवाल है, वहां समलैंगिकता की चपेट में नामी-गिरामी खिलाड़ी ही नहीं, राजनेता, साहित्यकार, प्रशासन में उच्च पदों पर बैठे लोग भी हैं। वहां समलैंगिकता एक फैशन की तरह नहीं पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। यूरोप के अधिकांश देशों में अब समलैंगिक संबंधों को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। भोग में संतुष्टि की तलाश में लोग एक ऐसी अंधेरी गुफा में उतर चुके हैं , जहां स्त्री  व पुरुष की जननेन्द्रिय  खिलौने के रूप में बेची-खरीदी जा रही है । मनुष्य व पशु के बीच का अंतर मिटाने की होड़ सी चल रही है। कुछ लोग जिनकी संख्या अब लाखों में पहुंच चुकी है, जो पश्चिम की इसी अपसंस्कृति से संस्कारित हुए हैं, चाहते हैं भारत में भी यही सब हो। ऐसे लोग अब अधिकार की बातें करने लगे हैं।
 

ऐसा नहीं कि समलैंगिकता हमारे देश में नहीं थी, समलैंगिकता आदिम युग से है लेकिन किसी भी सभ्य समाज में इसका समर्थन नहीं किया गया, यह सदैव त्याज्य रही।
 

आज देश में समलैंगिकों की संख्या 25 लाख से ऊपर हो चुकी है। कल को ऐसा न हो कि वोट बैंक के चक्कर में कोई पार्टी इनकी संख्या को अल्प मानकर इन्हें बेहतर सुविधाएं देने की घोषणा करने लगे। जिस देश में वोट बैंक के चक्कर में लोग आतंककारियों तक की हिमायत करते नजर आते हैं, वहां ऐसा हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
 

यदि हम सभ्य व स्वस्थ समाज के पक्षधर हैं तो समलैंगिकता को बढ़ावा देने की कोशिश का पुरजोर विरोध करना चाहिए। कम से कम भारत जैसे देश में जहां नैतिकता, सदाचार, सुसंस्कार जीवन के आधार हैं, वहां ऐसे सामाजिक अपराधों का कोई स्थान नहीं होना चाहिेए। जो ताकते समलैंगिकता को जीने के अधिकार से जोड़कर देख रही हैं उन्हें सबसे पहले जीना सीखना चाहिए। समलैंगिकता को बढ़ावा देना इस देश की जड़ों को काटने की कोशिश है, इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। समलैंगिकता के आदी हो चुके लोगों पर डंडा बरसाने की नहीं, पूरी करुणा व सहानुभूति के साथ उनके उपचार की जरूरत है।

Monday, December 9, 2013

घर में शेर, दक्षिण अफ्रीका में ढेर

रविवार को दक्षिण अफ्रीका के साथ दूसरे वन डे इंटरनेशनल में 134 रन से हार के साथ ही एक बार फिर यह साबित हो गया कि तेज पिचों पर हमारे बल्लेबाज आज भी नौसीखिए हैं। भारत की सपाट, बल्लेबाजी के अनुकूल पिचों पर रनों का अम्बार लगानेवाले बल्लेबाजों की कलई तेज और उछाल भरी पिचों पर पहले से ही खुलती रही है। ऐसे पिचों पर ज्यादा चपलता, बेहतर फुटवर्क और तकनीकी दक्षता की जरूरत होती है। रविवार का मुकाबला डरबन की पिच पर था जिसे दुनिया की सबसे तेज पिच माना जाता है। यहां भारत लगातार हारता रहा है। वर्ष 92 में 39 रन से, 2006 में 157 रन से, 2011 में 135 रन से भारत हारा था।
साउथ अफ्रीका में इस सीरीज के पहले भारत कुल 25 एक दिवसीय मैचों में से 19 हार चुका है। यह हार तब हुई थी जब शतकों का शतक लगानेवाले भारतरत्न खेला करते थे। एक दिवसीय मैचों के आकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यहां की तेज पिचों पर पहुंचते ही  उनका बल्ला खामोश हो जाता था। जब क्रिकेट के भगवान ही यहां पर पस्त होते रहे हैं तो बाकी खिलाडिय़ों को क्या दोष दिया जाए। 
दक्षिण अफ्रीका में एक दिवसीय मैचों में सचिन का प्रदर्शन खुद इसकी गवाही दे रहा है।       

       
7 dec-1992-                                                       R            B         4        6            SR
Tendulkar b McMillan                                    15            27      1         0        55.55

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9 dec-92
SR Tendulkar c †Richardson b Callaghan      10           36        0        0      27.77
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11 dec-92
 SR Tendulkar c †Richardson b Mathews        22           24        2         0       91.66 

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13    dec-92
     SR Tendulkar     c McMillan b  donald        21           44       1          0       47.72    

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15 dec-92                                                              R            B         4         6        SR
SR Tendulkar     b de Villiers                             32           52        1          0      61.53     

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17 dec-92-durbun
 SR Tendulkar     c Cronje b Pringle                  23           39         0          0       58.97 

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19 dec-92
 SR Tendulkar     c †Richardson b Matthews    21         38         3         0       55.26    

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 23 JAN-97                                                           R           M        B     4     6        SR
 SR Tendulkar     b Pollock                                 0           12         4     0        0     0.00
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2-FEB-97
 SR Tendulkar     b Donald                                  1           14         14     0     0     7.14
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4 FEB-97
     SR Tendulkar     c Cullinan b Klusener         14         34          24     2     0    58.33

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13 FEB-1997
    SR Tendulkar     c Bryson b Cronje                45          48         33     7     1  136.36
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5 OCT 2001
SR Tendulkar     c Gibbs b Kallis                     101        209        129     9     0   78.29
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10 OCT 2001
SR Tendulkar     c Nel b Ntini                           38            82        57     5     0    66.66
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19 OCT-2001

 SR Tendulkar     b Kallis                                  37         68      35      5     0    105.71
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26 OCT- DURBON
SR Tendulkar     b Hayward                               17     49     42     3        0      40.47
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22 nov 2006-durbon
SR Tendulkar     b Nel                                        35     79     51     5     0       68.62
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26 nov-                                                                   R     M    B    4      6         SR
SR Tendulkar     c Bosman b Pollock                  2     20     9     0     0          22.22
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29 nov
SR Tendulkar     c †Boucher b Pollock             1     4     3     0     0             33.33
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3 dec 2006
SR Tendulkar     c de Villiers b Kemp               55     134     97     8     0  56.70
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12 jan 2011 durbon                                               R      M     B     4      6         SR
SR Tendulkar     c Steyn b Tsotsobe                   7       16     11     0     0         63.63
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15 jan 2011
SR Tendulkar     b Botha                                  24    78     44     2     0       54.54
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Saturday, November 23, 2013

सचिन तेंदुलकर या ब्रायन लारा -2


सचिन महलों में जलते हुए दीप थे तो लारा आंधियों के बीच जला चिराग। सचिन अनुकूल परिस्थितियों के शहंशाह थे तो लारा जटिलताओं से भरी विपरीत परिस्थितयों के योध्दा। दोनों महान खिलाडिय़ों में सर्वश्रेष्ठता के बारे में विचार करते हुए हमें दोनों की पृष्ठभूमि पर भी विचार करना होगा। 


लारा ने क्रिकेट खेलना शुरू किया तो महाशक्तिशाली वेस्टइंडीज का मजबूत किला ध्वस्त हो चुका था। महान खिलाड़ी विदा ले चुके थे । कभी जीतने का रिकार्ड बनानेवाली वेस्टइंडीज टीम हारने का रिकार्ड बनाने लगी थी। कई द्वीपों के खिलाडिय़ों को मिलाकर बनने वाली इस टीम में खिलाडिय़ों में मतभेद उभर कर सामने आने लगे थे। वेस्ट इडीज क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड बेहद गरीब बोर्ड है जहां पर खेले जानेवाली सीरिज विदेशी  कम्पनियां प्रायोजित करती हैं। जबकि भारत में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दुनिया का सबसे अमीर बोर्ड है, क्रिकेटरों पर मूसलाधार धन बरसता है। इसे क्रिकेटरों का स्वर्ग कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां सबसे ज्यादा स्टेडियम और करोड़ों क्रिकेटप्रेमी हैं। सबसे ज्यादा क्रिकेट मैच यहां खेले जाते हैं। यहां क्रिकेटर बन जाने का मतलब ही है शोहरत और दौलत के शिखर पर पहुंच जाना। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा बाजार भी है। जहां पेप्सी, कोकाकोला सहित विभिन्न अनावश्यक उत्पादों को बेचने के लिए कम्पनियां क्रिकेटरों, फिल्म स्टारों को करोड़ों रुपए देती हैं। जबकि वेस्टइंडीज में क्रिकेटरों की हालत दयनीय है। 

वेस्टइंडीज में क्रिकेटरों को बेहतर पैसा देने की मांग को लेकर ब्रायन लारा ने बोर्ड के समझ कुछ मांगे रखी थी जिस पर वेस्ट इंडीज क्रिकेट बोर्ड ने लारा सहित सभी खिलाडिय़ों को टीम से निकाल दिया था। वहां क्रिकेटर सिर्फ खिलाड़ी होता है यहां क्रिकेटर को लोग भगवान बना देते हैं। लारा को टीम का कप्तान बनाया गया था तो टीम के खिलाडिय़ों ने भी इसका विरोध किया था यहां यदि सचिन 138 गेंदों पर शतक बनाते हैं और भारत की हार का कारण बन जाते हैं तो भी कोई विरोध नहीं होता। 

लारा एक बेहद कमजोर टीम से खेले। अक्सर जब वे बल्लेबाजी करने उतरते तो वेस्टइंडीज टीम बेहद कम स्कोर पर दो विकेट गंवाकर संकट में होती। विपक्षी टीम जानती थी यदि लारा को आउट कर लिया तो टीम धराशायी हो जाएगी। ऐसा कई बार हुआ कि लारा के दोहरा शतक या शतक के बावजूद वेस्टइंडीज टेस्ट मैचों में बुरी तरह से हारी। बाकी सारे खिलाड़ी मिलकर भी लारा जितना रन नहीं बना पाते थे। लारा एक ऐसी टीम को जीत का स्वाद चखाते थे जो जीतने के काबिल नहीं थी। सचिन एक ऐसी टीम के साथ खेलते थे जिसका हारना मुश्किल था, जिसमें कई धुरंधर बल्लेबाज थे। सचिन मोहम्मद अजहरुद्दीन, गौतम गम्भीर, वीरेन्द्र सहवाग, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण,सौरव गांगुली जैसे कई महान क्रिकेटरों के साथ खेले।
टेस्ट मैचों की बात करें तो सचिन, द्रविड़ या लक्ष्मण से बेहतर बल्लेबाज नहीं थे। वन डे मैचों में भी वे विराट कोहली से बेहतर बल्लेबाज नहीं थे।
(चित्र espncricinfo से साभार )

Saturday, November 16, 2013

सचिन तेंदुलकर या ब्रायन लारा- 1

आज टेस्ट क्रिकेट से भी सचिन के संन्यास लेने से भारतीय क्रिकेट के एक युग का अंत हो गया। सचिन को संन्यास ले लेना चाहिए या नहीं, जैसे ढेर सारे सवालों के उठने के बाद आखिर सचिन राजी हुए और उनकी अलविदा सीरिज के लिए वेस्ट इंडीज को बुलाया गया। प्रदर्शन के लिहाज से रसातल में पहुंच चुकी वेस्ट इंडीज टीम प्रतिद्वंद्वी के रूप में बच्चों की टीम साबित हुई और दोनों टेस्ट मैंचों को तीन दिन में ही हार गई और जीत के तोहफे के साथ सचिन की विदाई हुई। यह सीरिज हार-जीत से ज्यादा सचिन की विदाई के लिए आयोजित थी और सचिन को शानदार विदाई दी गई, जिसके वे हकदार भी हैं।

 सचिन दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजों में से एक थे, इसमें दो राय नहीं। रहा सवाल सर्वश्रेष्ठ होने का तो इस पर विवाद होता रहा है। सचिन की तुलना ब्रायन लारा से होती रही है। सचिन या ब्रायन लारा। कौन है दुनिया का सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज। यह सवाल किसी भारतीय से पूछने पर जवाब तय है- सचिन। जिस क्रिकेटर ने 24 साल तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेला हो, कुल मिलाकर सौ शतक बनाए हों, जिसका औसत टेस्ट मैचों में 50 से ऊपर हो, वह निश्चित ही महान बल्लेबाज है। टेस्ट मैचों को ही किसी बल्लेबाज की कुशलता की कसौटी माना जाता है। आस्ट्रेलिया के डान ब्रेडमैन को सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज माना जाता है। विवाद उनके बाद यानि दूसरे स्थान के लिए होता है।  

टेस्ट मैचों में औसत के हिसाब से लारा सचिन के लगभग बराबर हैं। सचिन का औसत जहां 53 हैं वहीं लारा का औसत 52 है। सचिन ने लारा से लगभग चार हजार रन ज्यादा बनाए हैं लेकिन उन्होंने 68 टेस्ट मैच ज्यादा खेले हैं, जिनमें उन्होंने 96 पारियां खेली हैं। लगभग छह साल पहले रिटायर हो चुके लारा का खेल भारतीय क्रिकेट प्रेमियों ने सचिन की तुलना में कम ही देखा है। इसके अलावा हमारे देश में क्रिकेट जिस भावुकता व भक्तिभाव से देखा जाता रहा है, उसमें सोच-विचार की गुंजाइश कम ही है। जिस देश में मीडिया ने सचिन को क्रिकेट के भगवान के रूप में चर्चित कर रखा हो, वहां उनसे बेहतर किसी को मानने के लिए कौन तैयार होगा। यही कारण है कि कोई भी क्रिकेटर जब लारा को बेहतर बताता है तो चर्चा शुरू हो जाती है और लोग ऐसी बातों को गलत साबित करने में जुट जाते हैं। 

लारा और सचिन एक दूसरे के प्रशंसक हैं और स्वयं लारा सचिन को बेहतर मानते हैं। यह इन दोनों खिलाडिय़ों की महानता है। यह अलग बात है कि विजडन ने टेस्ट क्रिकेट की 100 सर्वश्रेष्ठ पारियों में सचिन की एक भी पारी को शामिल नहीं किया जिसकी सचिन के भारतीय प्रशंसकों व भारतीय मीडिया ने भारी आलोचना की। इस पर विजडन का जवाब यह था कि जीत दिलाने वाली या जीत में अहम भूमिका निभानेवाली पारियों को ज्यादा महत्व मिला और सचिन की ज्यादातर अच्छी पारियां या तो ड्रा मैच में आई हैं या हारे हुए मैच में। रहा सवाल लारा का, तो उन्हें दूसरा स्थान मिला। आस्ट्रेलिया के खिलाफ बारबाडोस में चौथी पारी में उन्होंने 309 रन के लक्ष्य का पीछा करते हुए 153 नाबाद की पारी खेलकर वेस्टइंडीज को जीत दिलाई थी। इसमें आठ विकेट गिरने के बाद एम्ब्रोस व वाल्श के साथ बनाए गए 62 रन शामिल हैं। लारा के सामने दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गेंदबाज ग्लेन मैकग्राथ थे और उन्होंने उस टेस्ट मैच में 44 ओवर फेंके थे। सचिन या लारा की सर्वश्रेष्ठता की तुलना करते समय सचिन की आस्ट्रेलिया में खेली गई पारियों की मिसाल दी जाती है। यहां भी लारा सचिन से बेहतर दिखाई देते हैं। लारा ने आस्ट्रेलिया में 277, 226, 182, 132 रन की पारी खेली जबकि सचिन ने 241, 154, 153,148, 114,116 रन की सर्वश्रेष्ठ पारियां खेली हैं। यहां देखना होगा कि लारा ने दो दोहरे शतक बनाए हैं जबकि सचिन ने दो शतक ज्यादा लगाया है। यह ध्यान रखना होगा कि सचिन ने 68 टेस्ट ज्यादा खेले हैं। 

लारा ने टेस्ट मैचों में एक बार 375 व एक बार 400 रन बनाया है जबकि भारत में बल्लेबाजी के अनुकूल फ्लैट पिचों पर खेलने के बावजूद सचिन का टेस्ट मैचों में उच्चतम स्कोर बांग्लादेश के खिलाफ 248 ही रहा और इस दिग्गज बल्लेबाज की पूजा करने वाले भक्तों को इस बात का मलाल ही रह गया कि सचिन के नाम एक भी तिहरा शतक दर्ज नहीं हो सका। 

बहरहाल, टेस्ट क्रिकेट से संन्यास लेनेवाले सचिन की प्रतिभा, क्रिकेट और अपने लक्ष्य प्रति उनके अतुलनीय समर्पण को सलाम है।  आज ही सचिन को भारत रत्न देने की घोषणा हुई है। सचिन को बधाई लेकिन ध्यानचंद जैसे कई महान खिलाडियों ने क्या बिगाड़ा था। 
(सहमति या असहमति, विरोध या समर्थन, प्रतिक्रिया जरूर दें।

Sunday, November 3, 2013

दीप जलते रहें

दीप जलते रहें
 

धूप हो, छांव हो
शहर हो, गांव हो
शांति, सौहार्द के फूल खिलते रहें।

वक्त कैसा भी हो, आस टूटे नहीं
हौसलों का कभी साथ छूटे नहीं
राह कैसी भी हो
चाह ऐसी ही हो
बिन थके पांव आगे ही बढ़ते रहें।

मन से लेकर गगन तक अंधेरा न हो
कोई दूरी न हो, तेरा-मेरा न हो
सुबह खिलती रहे
शाम सजती रहे
सुकून के सुरमयी साज बजते रहें।

Saturday, November 2, 2013

पानी पिएं, स्वस्थ रहें

आज धनतेरस है। धनतेरस के दिन आयुर्वेदिक औषधियों के जनक धनवंतरि की पूजा का विधान है। स्वास्थ्य का महत्व धन से ज्यादा है। हैल्थ इज वैल्थ और पहला सुख निरोगी काया जैसी कहावतों में यही अर्थ छिपा है। धन का सदुपयोग तभी कर पाएंगे, जब स्वस्थ रहेंगे। उत्तम स्वास्थ्य व दीर्घ आयु न हो तो धन लेकर क्या करेंगे।

कुछ महीने पहले एक वैद्य जी से मुलाकात हुई। ७० से अधिक की उम्र में भी आंखों पर चश्मा नहीं था। स्वस्थ नजर आ रहे थे। जाहिर है, अपने औषधीय ज्ञान का उन्होंने भरपूर उपयोग किया था। उन्होंने स्वास्थ्य के लिए वाटर थेरेपी के कुछ सूत्र बताए।

उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य अच्छा रहे इसके लिए हर हाल में पेट साफ रखना चाहिए। इसके अलावा शरीर में वात, पित्त व कफ को संतुलित रखना चाहिए। वात, पित्त व कफ का संतुलन बिगडऩे पर ही शरीर में रोगों का प्रवेश होता है। सुबह उठने के बाद मुंह धोए बिना, खाली पेट पानी पीना चाहिए। एक या दो गिलास से शुरू करते हुए पानी की मात्रा को धीरे-धीरे दो लीटर तक ले जाना चाहिए। दो लीटर संभव नहीं हो तो एक लीटर पानी तो पीना ही चाहिए। पानी गुनगुना हो तो बहुत बढिय़ा। इससे पेट साफ हो जाएगा और कब्ज से मुक्ति मिलेगी। मुंह नहीं धोने का कारण यह है कि मुंह में बनने वाली लार प्रकृति का उपहार है, वह शरीर के लिए बेहद गुणकारी होती है।

उनका कहना था कि खाना खाने के कम से कम एक घंटे बाद ही पानी पीना चाहिए। पानी फ्रिज का न हो, इसका ध्यान रखा जाए और पानी हमेशा घूंट-घूंट पीना चाहिए। बिल्कुल वैसे ही जैसे जूस पिया जाता है। गर्मियों के दिनों में ठंडा पानी पीने की बहुत इच्छा हो तो मटके का पानी पीना चाहिए, अन्यथा गुनगुना पानी सर्वोत्तम है।

इन सूत्रों को अपनाकर देखें और बेहतर स्वास्थ्य पाएं।
सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया। धनतेरस और दीपोत्सव की शुभकामनाएं।

Friday, October 25, 2013

नथली से टूटा मोती रे

वर्ष 2003 में अक्टूबर की एक शाम। बेंगलूरु के आसमान पर जमे बादल सुरमई शाम को भिगो रहे थे। चौड़य्या मेमोरियल हाल में 8 4 वर्षीय मन्ना दा की ऊंगलियां हारमोनियम पर थिरक रही थीं और उनकी जानी-पहचानी आवाज सभागार में तैर रही थी। लोग सम्मोहित थे। आधुनिक गीत-संगीत से उकताए लोगों के लिए यह एक यादगार शाम थी। 'ऐ मेरे प्यारे वतन, 'कस्मे वादे प्यार वफा, 'ऐ मेरी जोहराजबीं, 'यारी है ईमान मेरा, 'झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया, जैसे ढेर सारे गीतों का गवाह बना सभागार और कृतकृत्य हुए श्रोता। शास्त्रीय संगीत के अनुशासन में निखरी, मन्ना दा की आवाज की कशिश और उसका जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोला था।
मध्यांतर के दौरान मन्ना दा से बातचीत हुई तो पता चला कि अपने सुरों की तरह ही उनमें सरलता है, जीवंतता है और एक तरोताजा प्रवाह है। बातचीत में उन्होंने फिल्मी गीतों के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए कहा था कि इसके लिए नई पीढ़ी जिम्मेदार है। जो जीच बिकती है, बेचने वाला तो वही बेचेगा लेकिन लोगों को चाहिए कि गुणवत्ता से समझौता नहीं करें। जो स्तरहीन है, उसे नकार दिया जाना चाहिए। फिल्मी दुनिया में अपनी लोकप्रियता का श्रेय उन्होंने संगीतकार शंकर-जयकिशन को दिया था और मेहंदी हसन को अपना पसंदीदा गायक बताया था।
मन्ना डे उर्फ प्रबोध चंद्र डे उस दौर के गायक थे जब फिल्मी गीतों का जीवन से गहरा जुड़ाव था। घर-आंगन से लेकर खेत खलिहान तक रेडियो बजता था और गीत तन्हाई में हमसफर, बेचैनी में शुकून और उल्लास के क्षणों में साथी बन जाया करते थे। मन्ना दा के शास्त्रीय संगीत की साधना में तपे हुए सुरों में आकाश जैसी ऊंचाई थी तो पाताल जितनी गहराई भी। यही कारण है कि जितनी विविधता उनके गाए गीतों में है, उतनी अन्य गायकों में कम ही है।
उस्ताद बादल खान और चाचा कृष्णचंद्र डे और बाद में उस्ताद अब्दुल रहमान खान और उस्ताद अमन अली खान से मिले शाीय संगीत के संस्कारों को उन्होंने सीने से लगाए रखा। शाीय संगीत के साथ ही रविन्द्र संगीत की तरलता भी उन्हें विरासत में मिली थी। 'पूछो न कैसे मैंने रात बिताई (राग अहीर भैरव-फिल्म मेरी सूरत तेरी आंखें), 'तू प्यार का सागर है (राग दरबारी फिल्म सीमा), 'झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया (राग दरबारी, फिल्म मेरे हुजूर), 'लागा चुनरी में दाग (फिल्म दिल ही तो है-राग भैरवी) जैसे ढेर सारे रागों पर आधारित गीत हैं जो मन्ना दा की आवाज पाकर अमर हो गए।
गीत महज शब्द नहीं होते। उनके पीछे भावों का माधुर्य, अनुभूतियों की जीवंतता जरूरी है। यही मन्ना दा की खासियत थी। उनके गाए गीतों में भाव जी उठते थे। तभी तो 'कसमें वादे प्यार वफा सुनकर स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आंखें छलक पड़ी थीं। फिल्म आनंद में राजेश खन्ना पर फिल्माया गया गीत 'जिंदगी कैसी है पहेली हाए आज भी लोकप्रियता की पायदान पर काफी ऊंचे है। मन्ना दा की आवाज में यह गीत सुनकर लगता है जैसे लहरें समंदर के किनारों से गुफ्तगू कर रही हों और जीवन का फलसफा सुना रही हों। लाखों लोग हैं जो 'मेरा नाम करेगा रोशन सुनते-सुनते जवान हुए हैं उनके लिए मन्ना दा की आवाज बचपन में पिए गए दूध की तरह पोषण करनेवाली या पिता के कंधे पर बैठकर दुनिया देखने जैसी यादगार है। मन्ना 'दा के अधिकांश गीत जिंदगी के साज पर छेड़े गए तराने हैं। फिल्म सफर में लहरों का सीना चीरते हुए आगे बढ़ता मल्लाह जब गाता है, 'नदिया चले चले रे धारा.... तुझको चलना होगा तो लगता है जैसे जिंदगी आवाज दे रही है। 'दो बीघा जमीन का गीत 'अपनी कहानी छोड़ जा कुछ तो निशानी छोड़ जा जैसे कई गीत हैं जो जिंदगी से वैसे ही बावस्ता हैं जैसे दिल के साथ धड़कन। यह गीत लोगों की जुबान पर चढ़े और दिल में उतर गए। 

भक्ति गीतों की बात करें तो 'तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम आज भी एक ऐसे भावलोक में ले जाता है जहां दीन-हीन, भक्त पूरी श्रध्दा व समर्पण से भगवान के समक्ष नतमस्तक है। फिल्म 'तीसरी कसम में 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे गीत याद आता है। लोकगीतों की ठेठ जमीन से जुड़ी मिठास, खनक और गंवई उल्सास सुरों में ढाल पाना सिर्फ मन्ना दा के ही बस की बात थी। 
मन्ना दा ने शास्त्रीय गीतों के अलावा हल्के-फुल्के गीतों को भी उसी खूबसूरती से गाया। 'जोड़ी हमारा बनेगा कैसे जानी जैसे कई गीत हैं जो हास्य अभिनेताओं पर फिल्माए गए और बेहद लोकप्रिय हुए। 
 उनकी हर महफिल में एक गीत जरूर बजता था। यह मन्ना दा का सबसे पसंदीदा गीत था। प्रथम मिलन के विभिन्न रंगों को जिस खूबी से इस गीत में  सजाया गया है वह दुर्लभ है। मधुकर राजस्थानी के लिखे इस गीत के बोल हैं सजनी... नथली से टूटा मोती रे, कजरारी अंखियां रह गईं रोती रे। आज ऐसा लगता है जैसे सचमुच संगीत की नथली का एक मोती टूट गया और अंखियां बस रोती रह गईं।

Wednesday, October 23, 2013

देश सोना खोज रहा है

अजीब लोग हैं,  उन्नाव में सोने के लिए खोदाई हो रही है तो परेशान हैं और जब खोदाई नहीं हो रही थी, तब भी चिंता में घुले जा रहे थे। पहले कह रहे थे कि सरकार हजारों टन सोने की तरफ ध्यान ही नहीं दे रही है और अब कहते हैं यह महज अंधविश्वास को बढ़ावा देना है।
सोने के भंडार की खबर क्या चली, कोयला घोटाला, आसाराम सब पीछे छूट गए। लोगों की दिलचस्पी अगर किसी चीज में है तो सिर्फ सोने में। क्या सोना मिलेगा, यही प्रश्न अखबार के संपादक से लेकर सब्जी के दुकानदार तक के भेजे में घुसा पड़ा है। ज्यादातर लोग इस प्रश्न का सीधा जवाब देने के बजाय बीच के रास्ते पर चल रहे हैं। वे कहते हैं, ईश्वर चाहें तो कुछ भी संभव है। यानी की सोने का मिलना भी और ना मिलना भी।
सोना दिलोदिमाग पर छाया हुआ है। लोग टीवी पर सोने को चमकता देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि अखबार के पहले पेज पर भरपूर सोना दिखाई दे। सपने में दिखा यह सोना लोगों की जागती आखों में सुनहले सपने सजा रहा है । फिर देश में कई शहरों में ऐसी खबरें आईं कि अमुक व्यक्ति को सपने में अमुक स्थान पर सोना दिखाई दिया। होड़ मच गई। कई लोगों ने तो छुट्टी लेकर भरपूर नींद लेने की कोशिश की, क्या पता उन्हें भी कहीं सोना दिखाई दे जाए।


पूरे देश में जैसे सोने की लहर है। लोग सोने के  बारे में सोच रहे हैं, सोने को लेकर बातें कर रहे हैं और सोने के सपने देख रहे हैं। जय हो सपने देखनेवाले बाबाजी की। उन्होंने देश को कहां से कहां पहुंचा दिया। एक ही झटके में देश ने कितना विकास कर लिया। कल तक जो लोग प्याज देखने के लिए लालायित थे, आज सोना देखने के लिए उत्सुक हैं। कल तक हालात और थे। तमाम कोशिशों के बावजूद सपना था कि रोजी-रोटी, मकान, बिटिया की शादी, पुत्र की नौकरी  से आगे बढऩे के लिए तैयार ही नहीं था। आज वह सोने से कम पर राजी ही नहीं है।

वैसे भी इस देश का सोने से बड़ा गहरा और पुराना रिश्ता है। तभी तो यह सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। कई लुटेरों ने तो सोना पाने के लिए ही बार-बार आक्रमण किया और लूटकर चलते बने। मनोज कुमार ने भी वर्षों पहले इस देश की विशेषता बताते समय कहा था कि यहां की धरती सोना उगलती है। अब लोग धरती के पेट में ऊंगली डालकर सोना उगलवाना चाहते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है?
यही सोचते-सोचते मैं बड़ी मुश्किल से सोया और एक भयानक सपना देखकर मेरी आंख खुल गई। मैंने देखा कि सोने की चमक बदलते-बदलते लोभ के काले रंग में बदल गई। हमारा चेहरा बदरंग होता जा रहा था और विवेक कहीं दूर खड़ा हंस रहा था।

Thursday, October 10, 2013

वाह रे! झांसाराम

लोगों को कल्याण व मुक्ति की राह दिखाने के नाम पर बाप-बेटे किशोरियों से बलात्कार करते रहे और लोग उनके समक्ष नतमस्तक होते रहे। जय राम जी की।

आज भी किन्हीं मंघाराम जी का फोन आता है। बेहद गुस्से में हैं। कहते हैं बापू के बारे में ऐसी खबरें मत छापिए। यह झूठ है, उन्हें बदनाम करने की साजिश है। मंघाराम जी आस्था से भरे हुए हैं। ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं लगते। धर्म व अध्यात्म के बारे में उनका ज्ञान अंधश्रद्धा से शुरू होता है और वहीं खत्म हो जाता है। तर्क व सोच-विचार के सवाल पर उखडऩे लगते हैं। कहना चाहता हूं कि झांसाराम और फांसाराम जैसे लोगों को बलात्कारी बनाने में आप जैसे लोगों का बहुत बड़ा हाथ है, लेकिन कह नहीं पाता। बुजुर्ग हैं, व्यथित हैं। उनके मन को और ठेस पहुंचाना ठीक नहीं।

सच तो यह है कि इन दोनों ने इस देश में सदियों से संचित, पोषित, पूजित   संस्कृति  के साथ बलात्कार किया है, आस्था को लूटा है, आशा और विश्वास को ठगा है। दुनियाभर में 425 से अधिक आश्रम खोल दिए, 50 से अधिक गुरुकुलों की स्थापना कर दी और देश में हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया। वाह रे! झांसाराम।

अभी भी ऐसे लोग हजारों की संख्या में (हो सकता है लाखों में हों) हैं जो झांसाराम को अपना उद्धारक मानने के लिए बेताब हैं। उधर, झांसाराम भी देश के सबसे महंगे वकील के सहारे बच निकलने की कोशिश में हैं। झांसाराम को एक बार रू-ब-रू सुनने का मौका मिला था, तेल-फुलेल बेचनेवाले एक मदारी से ज्यादा कुछ नहीं लगे। उन्हें पांच मिनट भी सुनना मुश्किल लगा। उनके भक्तों में कुछ ऐसे लोग भी मिले जो मानते  हैं कि उनकी दुकान इन्हीं के आशीर्वाद से ही चल रही है या उनका कारोबार इन्हीं की कृपा से ही चल रहा है। जय राम जी की।

ऐसे लोग उन्हें बापू कहते हैं। बापू शब्द का ऐसा अवमूल्यन। ऐसे लोग हजारों की संख्या में हैं जो शब्दों की बाजीगरी, भाव-विह्वल होकर रोने-धोने की कला में माहिर हैं। लोगों के भोलेपन और अंधश्रद्धा के सहारे अपनी दुकान चमकाए जा रहे हैं। खुद अपनी राह का पता नहीं, दूसरों को भक्ति व ज्ञान की राह पर धकेल रहे हैं। अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत। जिस देश ने विश्व को गीता जैसा प्रकाश दिया, वहां ऐसी अंधेर। इतना घना अंधेरा। श्रीकृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, संत कबीर, मीरा, नानक की भूमि पर ऐसे महिषासुर कब तक पैदा होते रहेंगे। मां दुर्गा इस बार दशहरा पर ऐसे राक्षसों का समूल सफाया करें और हमें विवेक दें। हमारी विवेकहीनता ही ऐसे लोगों की राह आसान करती है और जो इनसान कहलाने के काबिल भी नहीं हैं वे भगवान कहलाने लगते हैं।
विजयदशमी की ढेर सारी शुभकामनाएं।

Tuesday, October 1, 2013

लालू को जेल

राजनीति के अपराधीकरण की खबरों के बीच चारा घोटाला मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के जेल जाने  व मेडिकल एडमिशन फर्जीवाड़ा में कांग्रेस सांसद रशीद मसूद को सजा सुनाने की खबर राहत भरी है। ऐसा नहीं है कि इनके जेल जाने से राजनीति में बाहुबलियों का वर्चस्व कम हो जाएगा या भ्रष्ट राजनेताओं पर नकेल कस जाएगी, फिर भी यह विश्वास तो कहीं न कहीं मजबूत होता ही है कि अंत बुरे का बुरा और इस विश्वास को बनाए रखने की जरूरत है।
लालू यादव बिहार के आम आदमी के नेता बनकर उभरे और उन्होंने आम आदमी के विश्वास को उस्तरे से मूंडा। उनके शासनकाल में बेजोड़ प्रतिभाओं की भूमि बिहार की ऐसी दुर्गति हुई कि वह पिछड़ेपन का पर्याय बन गया। बिहार में उद्योग-धंधे ठप पड़ गए और अपराध हजारों रंग-रूप में खूब फला-फूला। राजनेताओं की छवि को रसातल में पहुंचाने और उन्हें फूहड़ और हास्यास्पद बनाने में लालू ने कोई कसर नहीं रखी थी। अपनी हास्यास्पद टिप्पणियों से उन्होंने राजनेता और नौटंकी के विदूषक के अंतर मिटा दिया था। इसी का परिणाम है कि लालू के नाम पर जितने चुटकुले बने, उतने चुटकुले किसी अन्य राजनेता के हिस्से में नहीं आए।
यह एक विडम्बना ही है कि चारा घोटाला मामले में न्याय होने में 17 साल लग गए लेकिन इससे इसका महत्व व प्रभाव कम नहीं हो जाता। रसीद का मामला तो इससे भी पुराना 1990-91 का है। तत्कालीन वीपी सिंह सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे रसूद को अयोग्य उम्मीदवारों को सीटें आवंटित करने का दोषी ठहराया गया है। कानून के शासन के प्रति लोगों की आस्था बनी रहे उसके लिए जरूरी है कि न्याय में देर न हो।
आज स्थिति यह है कि लोग राजनीति में आना ही इसलिए चाहते हैं कि यहां सफलता का मतलब है लूट की छूट। यहां तक कि ग्राम प्रधान या शहरों में पार्षद बनने वाला ही लाखों कूट लेता है। लालू व मसूद के इस हश्र से राजनीति को धन बटोरने का जरिया मान चुके लोगों को एक संदेश तो मिला ही होगा कि राजनीति में लूट का मतलब हमेशा छूट नहीं होता। ऐसे लोगों की जगह सिंहासन नहीं, सीखचों के पीछे है।
ऐसे फैसले संतोषजनक तो हैं लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि फिर कोई 'लालूÓ नहीं बने। राजनीति के गंदे पानी में मगरमच्छों का जन्म न हो, इसके लिए एकाध मगरमच्छ का पकड़े जाना ही पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता पूरे पानी को बदलने की है।

Tuesday, September 10, 2013

दंगे बुरे तो हैं

दंगे 
जिनमें मरनेवालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है
बुरे तो हैं
बहुत बुरे नहीं है।
बहुत बुरा है यह कि 

किसी का भी ध्यान दंगे करानेवालों की तरफ नहीं है
और उससे भी बुरा है कि 

लोग उन्हीं से शांति और समाधान की उम्मीद
कर रहे हैं.

Saturday, July 27, 2013

गरीब का पेट


लगता है, इस समय देश में मजे लेने वालों की तूती बोल रही है। पूनम पांडेय से लेकर दिग्गी राजा तक सभी अपने-अपने तरीके से लगे हैं और चर्चा में हैं। चर्चा में योजना आयोग भी है जिसने कड़ी मशक्कत के बाद यह ढूढ़ निकाला है कि हो न हो, गरीबी रेखा 27 से 33 रुपए के बीच कहीं न कहीं होनी चाहिए। योजना आयोग के इस रहस्योद्घाटन के बाद मजे लेनेवालों को एक नया मुद्दा मिल गया है। लोग पहले खा-पीकर और बाद में हाथ धोकर इस बात के पीछे पड़ गए हैं कि आखिर गरीब का पेट कितने में भर सकता है? गहन चर्चा, चिंतन और मंथन चल रहा है। कोई कहता है यह तो मामूली सा काम है जो महज एक रूपए में निपट सकता है तो कोई कह रहा है कि पांच रुपए में गरीब का पेट भर जाना निश्चित है। किसी की राय है कि बारह रुपए हों तो गरीब के पेट को भरने से कोई रोक नहीं सकता। कुछ ज्यादा ही मजे लेनेवाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पांच रुपए में पेट भर तो सकता है लेकिन खाने में क्या होगा, इसकी गारंटी नहीं।
गरीब का पेट राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना हुआ है। आजादी के बाद पहली बार देश का ध्यान पूरी तरह से गरीब के पेट पर फोकस है। एक बुध्दिजीवी की राय है कि जो वास्तविक गरीब है उसकी अंतडिय़ां पूरी तरह से सूखी और सिकुड़ी होती हैं। उसकी पीठ और पेट के बीच में मामूली सी जगह होती है जिसे भरना कोई मुश्किल काम नहीं है। इसलिए गरीब के पेट भरने की कोई समस्या ही नहीं है। एक शायर ने हां में हां मिलाते हुए कहा कि जबसे उन्होंने होश संभाला है, उन्होंने गरीबों को गम खाते हुए देखा है जो इस देश में कहीं भी आसानी से मिल जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि रही सही कसर सरकार की मिड डे मील जैसी योजनाएं पूरी कर देती हैं।
विदेश में पढ़ाई करने के बाद नेताजी नामक पिता की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजे एक नेता ने राय दी कि क्यूं न गरीबों के लिए सस्ते लैपटॉप वितरित किए जाएं। इस प्रक्रिया में सालभर तो निकल ही जाएंगे और इसकी ऐसी जोरदार चर्चा होगी कि लोग गरीब के पेट जैसी बेवकूफी भरी बातों को भूल जाएंगे।
चर्चा के दौरान एक जोरदार ठहाका गूंजा। लोगों ने माना कि पप्पू कहे जाने के बावजूद इस शख्स में गजब की दूरदृष्टि है। लेकिन इस पर आम राय नहीं बन सकी।
चर्चाओं के साथ अफवाहें भी गर्म हैं। एक अफवाह यह भी है कि सरकार चूंकि यह पता नहीं लगा पा रही है कि गरीब का पेट कितने में भर सकता है, इसलिए वह तह तक तहकीकात करने की तैयारी में है। इसके लिए वह किसी गरीब के पेट की तलाश में है जहां से उसे पुख्ता व पर्याप्त जानकारी मिल सके कि आखिर वह भरता कैसे है। बहरहाल, इस बात से गरीब लोग बहुत डरे हुए हैं और अपने पेट को छिपाकर रखने लगे हैं।
कोई कह रहा है कि सरकार गरीब के पेट पर इतनी चर्चा इसलिए करा रही है कि वह गरीबी को मिटाना चाहती है। एक बुजुर्ग बहुत चिंतित हैं। वे कहते हैं कि इन नामाकूलों से गरीबी तो क्या मिटेगी, ये जब भी गरीबी के पीछे पड़ते हैं, कुछ गरीब जरूर मिट जाते हैं। गरीबी की असली वजह तो इनकी भूख है जिसके हजार रूप हैं और जो कभी नहीं मिटती।

Monday, July 1, 2013

और एक दिन...

और एक दिन निकल गया आखिर
हाल माज़ी  में ढल गया आखिर।
एक चुल्लू मिला था आबे हयात।
उंगलियों से फिसल गया आखिर।
अहमद हुसैन मोहमद हुसैन की आवाज गूंज रही है।
सोमवार की शाम।

 साप्ताहिक अवकाश होने के कारण सोमवार मेरे लिए रविवार की तरह होता है। पत्रकारिता की नौकरी में सबसे बड़ी दुर्घटना यह होती है कि आप सुबह व शाम से महरूम कर दिए जाते हैं।  देर रात (दो बजे तक) घर पहुंचने पर मुश्किल से आंख लगती है अौर सुबह दस बजे के पहले नहीं खुलती। 
 शाम को जब सूर्यदेव संध्या की मांग में सिंदूर भर रहे होते हैं मैं खबरों से दो-चार होता रहता हूं। खबरें भी ऐसी जो आप पर हमला करती हैं, लहुलुहान करती हैं।
उत्तराखंड में मूढ़ राजनेताओं ने प्रकृति को ऐसा नोचा-खसोटा कि सब कुछ ढह
और बह रहा है और इसके बाद वहां पर बलात्कार हो रहे हैं।
वाह मेरे देश। पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता  की दूरी पलभर में खत्म।

राजनेताओं में होड़ मची है .
बेशर्मी की हदें छोटी पड़ रही हैं। झंडिया दिखाई जा रही हैं, राहत सामग्री रवाना हो रही है। ज्यादा से ज्यादा श्रेय लूटने की कुत्सित कोशिश। कौन आगे, कौन पीछे की बहस। मोदी क्यों आए और राहुल बाबा कहां हैं? जैसे सवालों पर लोग चर्चा करके अपने प्रवक्ता और बुद्धिजीवी होने का झंडा गाड़ रहे हैं। 
बाढ़ पीडि़तों की लाशों पर लोकसभा चुनाव की तैयारियां हो रही हैं।
और खबर बनाने के अलावा, उसकी सही प्लेसिंग के अलावा आप कुछ नहीं  कर पाते। 
 आपको नहीं लगता कि दुनिया लगातार बदतर  व बदसूरत होती जा रही है?
............................................
बहरहाल, चूंकि सोमवार है और दुर्लभ शाम मिली है मैं उसका पूरा उपयोग करना चाहता हूं। खयाल आता है कि एक मित्र से मिला जाए, फिर सोचता हूं कि जिसने महीनों से खबर तक नहीं ली, जिससे हर बार हाल-चाल जानने की पहल मैंने ही की, उसे क्यों तकलीफ दी जाए।
पत्नी गांव से लाई गई लाई(भूजा) गर्म करके दे गई है।
स्पीकर की आवाज बढ़ा देता हूं।
और एक दिन निकल गया आखिर।
हाल माज़ी  में ढल गया आखिर।


Thursday, June 20, 2013

कितने पत्थर, कितने फूल

ग़ज़ल की न तो समझ है, न ही जानकारी। फिर भी ग़ज़ल पर गाहे-बगाहे हाथ जरूर आजमाता हूं तमाम नाकामियों  के बावजूद ग़ज़ल की कशिश है की कम होने का नाम ही नहीं लेती। ऐसी ही एक कोशिश के दौरान निकली चंद  पंक्तियाँ पेश-ए -खिदमत हैं। मेरी कोशिश कितनी कामयाब हुई, बताने की मेहरबानी करें। 

कितने पत्थर, कितने फूल
ऐ दिल इस पचड़े  को भूल ।

वक्त भी देखो कैसा आया 
फूलों जैसे खिले बबूल ।

फैली खबर की तुम आओगे
बेमौसम खिल  उठे फूल ।

तेरा-मेरा एक वहम है
एक बागवां, लाखों फूल।

उसकी बातें  सुनी हैं जबसे
बाकी बातें हुईं फिजूल ।


Wednesday, June 12, 2013

ऐसा कैसे हुआ होगा

हैरान हूँ, सोच नहीं पा रहा हूँ
ऐसा कैसे हुआ होगा
बेटी को जंजीरों में बांधते समय
क्या कांपे नहीं होंगे पिता के हाथ
और कैसे भरा होगा मुंह में कपडा
ताकि उसकी चीख बाहर न जाने पाए।
अपने ही घर में कैद
हेमावती की चीख
पड़ोसियों तक पहुँचने में
आखिर क्यों लग गए चार साल।
बगल के घर में कोई चार साल से कैद है
और हमें खबर तक नहीं।
ऐसा कैसे हुआ होगा .
बंद कमरे में जीने की आदत
हमें कहाँ ले जा रही है
वहां जहाँ हम चीखेंगे
और हमारी चीख सुननेवाला
कोई न होगा।
(बेंगलुरु के मल्लेश्वरम इलाके में एक लड़की को उसके घर में चार साल तक कैद  रखा गया, फ़िलहाल वह अस्पताल में है. )