Saturday, January 21, 2017

पानी के लिए हाहाकार

तमिलनाडु का दूसरा सबसे बड़ा शहर कोवई पेयजल संकट से त्राहि-त्राहि कर रहा है। कुछ महीने पहले तक चार दिन में एक बार नलों में दिखाई देनेवाला पानी पहले सात दिन में एक बार आया और अब बारह दिन में एक बार नमूदार हो रहा है। हालात इतने भयावह हो गए हैं कि शहर के प्रमुख अस्पताल कोवई मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में कई पीडि़तों की शल्य चिकित्सा रोक देनी पड़ी, क्योंकि अस्पताल में पर्याप्त पानी नहीं था। नगर निगम ने टैंकरों से जलापूर्ति के इंतजाम का दावा किया है लेकिन प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा ही है। जलदाय विभाग करे भी तो क्या,

शहर की जीवनरेखा सिरुवानी में पानी नहीं है। स्थिति का फायदा उठाने के लिए पानी के व्यापारियों ने पेयजल के केन की कीमत बढ़ा दी है जिसकी वजह से कच्ची बस्तियों में तो बूंद-बूंद के लिए हाहाकार है। कोढ़ में खाज की तरह गर्मी दस्तक दे रही है। सतह पर तो पानी गायब हो ही रहा है, भूजल स्तर भी नीचे गिर गया है। आरएस पुरम जैसे इलाकों में भवनों में पानी नदारद होता जा रहा है और लोगों को दैनिक क्रियाओं के लिए भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। शहर में पहले सौ से अधिक झीलें थीं जो शहर के तापमान को तो नियंत्रित रखती ही थीं भूजल स्तर को भी थामे रखती थीं। इनमें से आधी अब इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं। कई जलाशय, तालाब व झीलें या तो दम तोड़ चुके हैं या फिर आखिरी सांसें गिन रहे हैं। जो झीलें बची भी हैं वे अतिक्रमण की शिकार हो रही हैं। इस वर्ष उत्तर-पूर्व मानसून के दगा दे जाने के कारण हालात बदतर हो गए। पेयजल संकट का सबसे बड़ा कारण जल संसाधनों का अति उपयोग या दुरुपयोग है। तमिलनाडु जैसे कम बारिश वाले राज्य में वर्षा जल का समुचित संरक्षण नहीं होना आश्चर्यजनक ही नहीं, चिंताजनक भी है। एक ऐसा राज्य जो पानी के लिए पड़ोसी राज्यों के सहयोग, समझौतों, प्राधिकरणों व न्यायालय के आदेशों पर निर्भर करता हो, वहां तो बूंद-बूंद पानी को सहेजने के जतन होने चाहिए थे लेकिन लगता है नीति-नियंताओं को इससे कोई लेना-देना नहीं। इन्हें तो कोई चुल्लूभर पानी दे दे तो अच्छा होगा। सरकार ने सभी जिलों को सूखा पीडि़त घोषित करके और केन्द्र सरकार से ३९,५६५ करोड़ रुपए की मांग करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली है। रुपए मिल जाएंगे तो सरकार किसानों को रुपए थमा देगी और अगले साल फिर ऐसे ही हालात हुए तो फिर ऐसे ही किसानों की मदद की जाएगी। इस तरह सरकार की मौजूदगी का एहसास बनाए रखा जाएगा। फिर अगले साल का इंतजार किया जाएगा। नागरिकों के भाग्य में फिर उड़ती धूल, बहता पसीना, मुरझाती फसलें और सूखते होठ लिख दिए जाएंगे। कोयम्बत्तूर में एक तो कम बरसात होती है, होती भी है तो सारा पानी बेकार बह जाता है। वर्षा जल का संग्रहण व संरक्षण करके बरसाती पानी का दोबारा उपयोग करने के समुचित इंतजाम किए बिना इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आवश्यक है कि वर्षा का जल बचाने के लिए सरकार अपने स्तर पर भी प्रयास करे और आम लोगों को, विशेषकर भवन मालिकों को वर्षाजल संग्रहण के लिए प्रोत्साहित करे। जल संरक्षण की तकनीक ही नहीं, इसका महत्व भी आम लोगों को बताया जाए और प्रोत्साहन राशि देकर जन सहभागिता को बढ़ाने का प्रयास किया जाए। विद्यार्थियों को पर्यावरण के साथ ही जल संरक्षण के बारे में शिक्षित व जागरूक किया जाना चाहिए। तालाबों, झीलों के पुनरोध्दार का अभियान चलाकर लोगों को  पानी का दुरुपयोग नहीं करने के लिए प्रेरित किया जाए। जल संरक्षण हमारी पहली चिंता होनी चाहिए, यह समय की मांग है और आनेवाली पीढिय़ों के लिए पानी बचा रहे, यह हमारी जिम्मेदारी भी है।

Wednesday, January 11, 2017

प्रकृति और परमात्मा की मिलन स्थली


संतोष पाण्डेय@कोयम्बत्तूर.




तीन तरफ पश्चिमी घाट की पहाडिय़ां, हरियाली को चूमती, इठलाती, सरसराती हवा। महानगरीय प्रदूषण से अछूती, जंगलों में पली हवा जिसे प्राणों में भर लेने का मन करे और भीतर उतरते ही रोम-रोम के पुनर्नवा होने का एहसास हो। और फिर सामने भगवान कार्तिकेय का मंदिर। कार्तिकेय को दक्षिण मेंं मुरगन कहा जाता है। कोयम्बत्तूर से लगभग १५ किलोमीटर की दूरी बना यह मंदिर मरुदमलई मुरगन मंदिर के नाम से जाना जाता है। मरुद और मलई को मिलाकर बना यह शब्द बताता है कि पश्चिमी घाट की इन पहाडिय़ों पर मरुत के पेड़ बहुतायत में हैं जिनकी वजह से इसे मरुदमलई कहा गया। मरुद के पेड़ जिन्हें अर्जुन भी कहा जाता है, अपने औषधीय गुणों के लिए जाने जाते हैं। हृदय के रोगों में विशेष लाभकारी माना जाता है। मरुद के छितराए हुए पेड़ों की अनंत श्रृंखला के बीच बना यह मंदिर भी हृदय को असीम शांति और सुकून से भर देता है। ‘जंगल में मंगल’ की कहावत किसी ऐसे ही मंदिर को देखकर बनी होगी। मंदिर द्रविण स्थापत्य कला का नमूना तो है ही, उस अदृश्य शक्ति के प्रति मनुष्य की आस्था का बेजोड़ प्रमाण भी है, जिसे विभिन्न नामों से पुकारा या पूजा जाता है। ‘हरोहरा’, ‘हरोहरा’, ‘हरोहरा’ का उच्चारण करते हुए काले शर्ट व काली लुंगी पहने मंदिर की सीढिय़ां चढ़ते लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। सबरीमाला मंदिर जानेवाले श्रध्दालु सबरीमाला जाने से पहले यहां पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। सीढिय़ां चढ़ते ही सबसे पहले विघ्नविनाशक का मंदिर है। यहां पूजा-अर्चना के बाद ऊपर चढि़ए तो भगवान कार्तिकेय के दर्शन होते हैं। इतना प्रसिध्द और प्राचीन मंदिर, फिर भी भिखारी दिखाई नहीं देते, अच्छा लगता है। मंदिर से कोयम्बत्तूर शहर का विहंगम नजारा दिखाई देता है। ऐसा लगता है जैसे समूचा शहर मुरगन के चरणों में बसा हो और उनके समक्ष नतमस्तक हो। शाम के साथ पहाडिय़ों की खूबसूरती बढऩे लगती है। ढलता सूरज पहाडिय़ों की आभा को और भी बढ़ा देता है। जैसे सूरज पहाडिय़ों को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीष देता हुआ उनके माथे पर सिंदूर लगा देना चाहता हो। शाम ढलते ही आकाश में चांद उगता है। भरे-पूरे चांद को देखकर पहाडिय़ां दुल्हन की तरह सज उठती हैं। यहां प्रकृति की सुषमा चरम पर है और ऐसा लगता है जैसे प्रकृति और परमात्मा की मिलन स्थली हो।
उत्तर में कार्तिकेय व दक्षिण में मुरुगन नाम से लोकप्रिय भगवान शंकर के पुत्र का यह मंदिर बारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ। पेरूर पुराणम की एक कथा के अनुसार आसुरी प्रवृत्तियों के नाश के लिए भगवान शंकर के आदेशानुसार भगवान मुरगन का आगमन हुआ। मंदिर का महात्म्य ऐसा है कि प्रतिदिन यहां हजारों लोग खिंचे चले आते हैं। इनमें स्थानीय लोगों के साथ ही कोयम्बत्तूर व आसपास के शहरों में बसे उत्तर भारतीय लोग भी दिखाई देते हैं। कोयम्बत्तूर आनेवाले विदेशी पर्यटकों के लिए भी मंदिर आकर्षण का केन्द्र है।
मरुदमलई मुरगन मंदिर जाने के लिए कोयम्बत्तूर के सभी प्रमुख इलाकों से बस की सुविधा है जो पहाड़ी के पास तक जाती है। वहां से मिनी बस में बैठकर दस रुपए किराए में मरुदमलई पहुंचा जा सकता है। बस से न जाना चाहें तो सीढिय़ों के सहारे भी यह दूरी तय की जा सकती है। सीढिय़ां लगभग ८५० हैं। शहरों में किसी इमारत की सीढिय़ां पहाड़ सी लगती हैं यहां पहाडिय़ों की सीढिय़ां भी चंद कदमों में सिमट जाती हैं। यह मरुद के पेड़ों से छनकर आती हवा का कमाल है, भगवान मुरुगन की कृपा है या कुछ और, यह तो मुरगन ही जानें। मंदिर के पट सुबह साढ़े पांच बजे खुल जाते हैं और दोपहर एक बजे बंद हो जाते हैं। दोपहर दो बजे के बाद शाम साढ़े आठ बजे तक पूजा-अर्चना की जा सकती है।
पम्पाती सिध्दार गुफा
मंदिर से नीचे उतरते ही पूर्वी तरफ एक संकरा रास्ता पम्पाती सिध्दार गुफा की ओर ले जाता है। कहा जाता है कि यहां सिध्दों ने ध्यान किया और सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त की। सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का यही संदेश यहां हवा के साथ कानों में सरगोशियां करने लगता है। संसार के सुख तुच्छ और फीके लगने लगते हैं। मन करता है, बस बैठे रहें, देखते रहें, अघाते रहें। शहरों की आपाधापी में मनुष्य ने क्या खोया है, इसका एहसास यहीं होता है। अंत में फिर आने, बल्कि फिर-फिर आने की कामना मन में लिए लौटना पड़ता है।