Saturday, July 27, 2013

गरीब का पेट


लगता है, इस समय देश में मजे लेने वालों की तूती बोल रही है। पूनम पांडेय से लेकर दिग्गी राजा तक सभी अपने-अपने तरीके से लगे हैं और चर्चा में हैं। चर्चा में योजना आयोग भी है जिसने कड़ी मशक्कत के बाद यह ढूढ़ निकाला है कि हो न हो, गरीबी रेखा 27 से 33 रुपए के बीच कहीं न कहीं होनी चाहिए। योजना आयोग के इस रहस्योद्घाटन के बाद मजे लेनेवालों को एक नया मुद्दा मिल गया है। लोग पहले खा-पीकर और बाद में हाथ धोकर इस बात के पीछे पड़ गए हैं कि आखिर गरीब का पेट कितने में भर सकता है? गहन चर्चा, चिंतन और मंथन चल रहा है। कोई कहता है यह तो मामूली सा काम है जो महज एक रूपए में निपट सकता है तो कोई कह रहा है कि पांच रुपए में गरीब का पेट भर जाना निश्चित है। किसी की राय है कि बारह रुपए हों तो गरीब के पेट को भरने से कोई रोक नहीं सकता। कुछ ज्यादा ही मजे लेनेवाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पांच रुपए में पेट भर तो सकता है लेकिन खाने में क्या होगा, इसकी गारंटी नहीं।
गरीब का पेट राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना हुआ है। आजादी के बाद पहली बार देश का ध्यान पूरी तरह से गरीब के पेट पर फोकस है। एक बुध्दिजीवी की राय है कि जो वास्तविक गरीब है उसकी अंतडिय़ां पूरी तरह से सूखी और सिकुड़ी होती हैं। उसकी पीठ और पेट के बीच में मामूली सी जगह होती है जिसे भरना कोई मुश्किल काम नहीं है। इसलिए गरीब के पेट भरने की कोई समस्या ही नहीं है। एक शायर ने हां में हां मिलाते हुए कहा कि जबसे उन्होंने होश संभाला है, उन्होंने गरीबों को गम खाते हुए देखा है जो इस देश में कहीं भी आसानी से मिल जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि रही सही कसर सरकार की मिड डे मील जैसी योजनाएं पूरी कर देती हैं।
विदेश में पढ़ाई करने के बाद नेताजी नामक पिता की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजे एक नेता ने राय दी कि क्यूं न गरीबों के लिए सस्ते लैपटॉप वितरित किए जाएं। इस प्रक्रिया में सालभर तो निकल ही जाएंगे और इसकी ऐसी जोरदार चर्चा होगी कि लोग गरीब के पेट जैसी बेवकूफी भरी बातों को भूल जाएंगे।
चर्चा के दौरान एक जोरदार ठहाका गूंजा। लोगों ने माना कि पप्पू कहे जाने के बावजूद इस शख्स में गजब की दूरदृष्टि है। लेकिन इस पर आम राय नहीं बन सकी।
चर्चाओं के साथ अफवाहें भी गर्म हैं। एक अफवाह यह भी है कि सरकार चूंकि यह पता नहीं लगा पा रही है कि गरीब का पेट कितने में भर सकता है, इसलिए वह तह तक तहकीकात करने की तैयारी में है। इसके लिए वह किसी गरीब के पेट की तलाश में है जहां से उसे पुख्ता व पर्याप्त जानकारी मिल सके कि आखिर वह भरता कैसे है। बहरहाल, इस बात से गरीब लोग बहुत डरे हुए हैं और अपने पेट को छिपाकर रखने लगे हैं।
कोई कह रहा है कि सरकार गरीब के पेट पर इतनी चर्चा इसलिए करा रही है कि वह गरीबी को मिटाना चाहती है। एक बुजुर्ग बहुत चिंतित हैं। वे कहते हैं कि इन नामाकूलों से गरीबी तो क्या मिटेगी, ये जब भी गरीबी के पीछे पड़ते हैं, कुछ गरीब जरूर मिट जाते हैं। गरीबी की असली वजह तो इनकी भूख है जिसके हजार रूप हैं और जो कभी नहीं मिटती।

Monday, July 1, 2013

और एक दिन...

और एक दिन निकल गया आखिर
हाल माज़ी  में ढल गया आखिर।
एक चुल्लू मिला था आबे हयात।
उंगलियों से फिसल गया आखिर।
अहमद हुसैन मोहमद हुसैन की आवाज गूंज रही है।
सोमवार की शाम।

 साप्ताहिक अवकाश होने के कारण सोमवार मेरे लिए रविवार की तरह होता है। पत्रकारिता की नौकरी में सबसे बड़ी दुर्घटना यह होती है कि आप सुबह व शाम से महरूम कर दिए जाते हैं।  देर रात (दो बजे तक) घर पहुंचने पर मुश्किल से आंख लगती है अौर सुबह दस बजे के पहले नहीं खुलती। 
 शाम को जब सूर्यदेव संध्या की मांग में सिंदूर भर रहे होते हैं मैं खबरों से दो-चार होता रहता हूं। खबरें भी ऐसी जो आप पर हमला करती हैं, लहुलुहान करती हैं।
उत्तराखंड में मूढ़ राजनेताओं ने प्रकृति को ऐसा नोचा-खसोटा कि सब कुछ ढह
और बह रहा है और इसके बाद वहां पर बलात्कार हो रहे हैं।
वाह मेरे देश। पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता  की दूरी पलभर में खत्म।

राजनेताओं में होड़ मची है .
बेशर्मी की हदें छोटी पड़ रही हैं। झंडिया दिखाई जा रही हैं, राहत सामग्री रवाना हो रही है। ज्यादा से ज्यादा श्रेय लूटने की कुत्सित कोशिश। कौन आगे, कौन पीछे की बहस। मोदी क्यों आए और राहुल बाबा कहां हैं? जैसे सवालों पर लोग चर्चा करके अपने प्रवक्ता और बुद्धिजीवी होने का झंडा गाड़ रहे हैं। 
बाढ़ पीडि़तों की लाशों पर लोकसभा चुनाव की तैयारियां हो रही हैं।
और खबर बनाने के अलावा, उसकी सही प्लेसिंग के अलावा आप कुछ नहीं  कर पाते। 
 आपको नहीं लगता कि दुनिया लगातार बदतर  व बदसूरत होती जा रही है?
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बहरहाल, चूंकि सोमवार है और दुर्लभ शाम मिली है मैं उसका पूरा उपयोग करना चाहता हूं। खयाल आता है कि एक मित्र से मिला जाए, फिर सोचता हूं कि जिसने महीनों से खबर तक नहीं ली, जिससे हर बार हाल-चाल जानने की पहल मैंने ही की, उसे क्यों तकलीफ दी जाए।
पत्नी गांव से लाई गई लाई(भूजा) गर्म करके दे गई है।
स्पीकर की आवाज बढ़ा देता हूं।
और एक दिन निकल गया आखिर।
हाल माज़ी  में ढल गया आखिर।