Friday, August 12, 2011

सावन जा रहा है


सावन जा रहा है, रुआंसा सा। बदले वक्त में इसकी  उपेक्षा ही नहीं, तिरस्कार  भी होने लगा है। कहां तो प्रतीक्षा होती थी, जोरदार स्वागत होता था। अब सावन आता है, चला जाता है, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। 
सावन सभी के लिए अलग-अलग अर्थ लेकर  आता है। यही वह समय है, जब साधू-संत एक स्थान पर ठहरकर  भौतिक  सुखों के  प्रति संयम का  संदेश देते हैं। त्योहारों की  श्रृंखला शुरू होती है, नई उमंग का  संचार होता है। वसुंधरा तृप्त व हरीभरी हो जाती है। कोपलें फूटती है, हरियाली की  चादर बिछ जाती है और नदियां उफन पड़ती हैं। सावन की  बूंदें तन-मन में ऐसी पुलक   जगा देती हैं कि प्रिय के  बिना सबकुछ फीका, अधूरा व रसहीन लगने लगता है। बादल गरजते हैं, बिजली कड़कती है तो आरजुओं को  जैसे पंख लग जाते हैं। तभी तो प्रियतमा ताने देकर कहती  है कि  तेरी दो टकिया दी नौकरी में मेरा लाखों का  सावन जा रहा है। सावन ही वह महीना है, जिसमें जियरा वैसे झूमता है, जैसे बन  में मोर। भारतीय संस्कृति कि  यह विशेषता तो देखिए कि जो माह प्रेम के  लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त माना जाता है, उसी माह में संयम व सदाचार का संदेश भी गुंजायमान होता है। दरअसल, प्रेम क़ी आतुरता और मचलते अरमानों पर यदि संयम का अंकुश न हो तो कैसा प्रेम? फिर तो प्रेम क्षुद्र तक  ही सीमित रह जाएगा। 
साहित्यकारों को  सबसे ज्यादा आंदोलित, प्रेरित करने वाला माह है, सावन। कभी  यह किसी क़ी  जुल्फों में नजर आता है तो कभी  कजरारे नैनों में और हां कभी-कभी किसी के नैना भी सावन-भादों बन जाते हैं। 
 बदलते वक्त में सावन क़ी  पहचान दांव पर लगी है क्योंकि अब न तो सावन के  झूले हैं और न ही कजरी। धान रोपती महिलाओं का गीत तो जैसे अब बीते जमाने क़ी  बात हो गई। 
हमरी भीगी जाए रेशम क़ी सारी पिया, बोय जिनि कुवारी (धान) पिया ना, झमक़ी झुक़ी आई बदरिया कारी, झूला झूलें  नन्दकिशोर, धीरे-धीरे पऊंवा धरईं बारी धनिया गोड़े घुघुरवा बाजे ना, रुमझुम बरसे बादरवा, मस्त हवाएं आईं पिया घर आजा, आजा पिया घर आजा। जाने कितने  गीत हैं जिनका सावन से अटूट नाता था, जो झूलों क़ी  पेग के  साथ कानों में रस और जीवन में उल्लास घोलते थे।इनके बिना सावन बरसता नहीं, बे-रसता है.