Thursday, May 26, 2011

आशा, सपने और यथार्थ

  लम्बे समय के बाद ब्लॉग के लिए कुछ लिखने बैठा हूँ. वह भी आज इसलिए संभव हो रहा है क्योंकि रात दफ्तर में ही गुज़र रही है. अन्यथा, देर रात घर पहुंचने और सुबह देर से जागने के बाद इतनी ऊर्जा ही कहाँ बचती है कि कुछ ऐसा किया जाये जो जरुरत नहीं, ख़ुशी के लिए हो.मुझे लगता है कि लगभग 40 साल तक आप सपनो को हकीकत में बदलने के लिए पूरी आशा और विश्वाश से जुटे रहते हैं, उसके बाद आशा पर यथार्थ हावी होने लगता है.सपने, इच्छाएं आपको संघर्ष की ओर तब भी ले जाते हैं लेकिन अब आप तेरे फूलों से भी प्यार तेरे काँटों से भी प्यार जैसे समभाव के साथ मैदान में उतरते हैं.आपको क्रोध आता है तो आपकी मजबूरियां सामने खड़ी हो जाती हैं, आपको थकान लगती है तो बच्चों का चेहरा सामने होता है.ऐसे में रोने की स्थिति बनने पर एक खिसियाई सी मुस्कान आपके चेहरे पर होती है और ख़ुशी आये तो आपकी आँखों से टपकने लगती है.आप न जीभर रो पाते है, न खुलकर हंस पाते है,जिंदगी आपको  एक अभिनेता बना देती है जिसका अपना कोई वजूद नहीं, उसे एक पात्र को जीना है,जो वह नहीं है.
दरअसल, यह उम्र का वह दौर है जब आदर्श, सच्चाई, इंसानियत जैसे शब्दों से आपका मोहभंग होने लगता है. आप देखते हैं कि आपके आस-पास जो दुनिया है, वहां ऐसे शब्दों का कोई वजूद नहीं.जो  होना चाहिए और जो है उसके बीच का अंतर आपको निराश करता है और भाग्यवादी बनाता है.
आपका क्या ख्याल है?