Monday, March 5, 2012

स्मृतियों में महकता गांव

लगभग बीस दिन गांव में बिताने के बाद बेंगलूरु लौटा। पता नहीं क्या है कि जब भी गांव से लौटता हूं, मन भारी और आंखें गीली होने लगती हैं। ऐसा लगता है जैसे कुछ बेहद कीमती और निहायत जरूरी, पीछे छूट रहा है। गंवई राजनीति के शिकंजे में कसमसाने के बावजूद गांव अभी भी ज्यादा जीने लायक लगता  है। सामूहिकता और भाईचारा को मजबूत करने वाले सामाजिक ताने-बाने का छिन्न-भिन्न होना मन को व्याकुल तो करता है फिर भी महानगरीय जीवन से उकताया मन शांति व सुकून ढूंढ़ ही लेता है। खेतों में पीली चुनर ओढ़े इठलाती सरसों का अछूता सौन्दर्य देखने के बाद मन करता है थोड़ी देर यहीं बैठे रहें। दूर-दूर तक खेत ही खेत, हरियाली से लदी, फलती-फूलती फसलें, पक्षियों की चहचहाहट और मोर का पींहकना, शहरों में ऐसी शांति व नैसर्गिक सुषमा दुर्लभ है। नौ बजे सोने के बाद सुबह छह बजे तक उठ जाने से जिस ताजगी का एहसास होता है, उसका क्या मोल हो सकता है? दोपहर में गन्ने के ताजा रस में मिली दही और शाम होते ही ताजा गर्म गुड़ हाजिर। एक मित्र की पत्नी के यहां से रोज दही व मट्‌ठा आ जाता था। उपली की धीमी आंच पर रखी, पकी मिट्‌टी की हांडी में पके दूध को जमाने से बनी दही, ललछौंह रंग और जमी ऐसी कि फेंको तो दीवार पर चिपक जाए। खाने के कई घंटे बाद सांसें महकती रहतीं। बेंगलूरु जैसे शहर में किसी भी कीमत पर यह संभव नहीं हो सकता।
रोजाना तीन किलोमीटर पैदल चलता और रात को बिस्तर पर लेटते ही नींद अपनी बाहों में ले लेती। थकान के बाद आनेवाली नींद जैसे अंग-अंग को दुलारती और सुला देती। महसूस हुआ कि शहर में रहने की विवशता की हम कितनी बड़ी कीमत चुकाते हैं।
गांव में लगभग तीन बार लिट्‌टी-चोखा का सामूहिक भोज हुआ। उपली की आग में पहले आलू, बैंगन, टमाटर आदि भुना जाता। बाद में आंच में ही लिट्‌टी पकाई जाती। भुर्ता तैयार किया जाता और फिर गर्म लिटि्‌टयों के साथ परोसा जाता। सोंधी-सोंधी लिट्‌टी के साथ भुर्ते के स्वाद के क्या कहने।


सामूहिक भोज के अवसर पर महुए के पत्ते से बने पत्तल की अनुपस्थिति खली। पता चला कि पत्तल व दोना, दोनों को प्लास्टिक की प्लेटों ने बेदखल कर दिया है। चाय की दुकानों में भी कुल्हड़ की जगह प्लास्टिक के कप दिखाई दिए तो मन तिक्त हो गया। दुकानदार का कहना था कि महंगा पड़ने के कारण कुल्हड़ के बजाय अब प्लास्टिक के कप ही इस्तेमाल किए जाते हैं। जाहिर है, यह गांव के कुम्हारों के रोजगार पर ही नहीं, पारिस्थितिकीय संतुलन पर भी हमला है। प्लास्टिक के कप धरती की कोख में जहर का काम करेंगे और आनेवाली पीढ़ियां हमें कोसेगी, लेकिन इसकी चिंता चाय बेचने वाले ही करें, यह उम्मीद भी बेमानी है।
गांव में चुनाव का माहौल था। बुजुर्गों से लेकर नई पीढ़ी तक के लिए चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बने थे। जाति आधारित चिंता, और कुछ नहीं। क्षेत्र के विकास के लिए कुछ करनेवाले नेताओं से भी किसी को भी कुछ भी लेना-देना नहीं। नेता वही जीते, जो हमारी जाति का हो, यही सोच। भले ही पांच साल में कभी उसने चेहरा नहीं दिखाया हो। लोकतंत्र के इस यज्ञ में हमारी सहभागिता तो थी, लेकिन वजह और लक्ष्य बेहद तुच्छ। जाहिर है, चुनाव के नतीजे भले ही कुछ भी हों, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।