Friday, October 25, 2013

नथली से टूटा मोती रे

वर्ष 2003 में अक्टूबर की एक शाम। बेंगलूरु के आसमान पर जमे बादल सुरमई शाम को भिगो रहे थे। चौड़य्या मेमोरियल हाल में 8 4 वर्षीय मन्ना दा की ऊंगलियां हारमोनियम पर थिरक रही थीं और उनकी जानी-पहचानी आवाज सभागार में तैर रही थी। लोग सम्मोहित थे। आधुनिक गीत-संगीत से उकताए लोगों के लिए यह एक यादगार शाम थी। 'ऐ मेरे प्यारे वतन, 'कस्मे वादे प्यार वफा, 'ऐ मेरी जोहराजबीं, 'यारी है ईमान मेरा, 'झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया, जैसे ढेर सारे गीतों का गवाह बना सभागार और कृतकृत्य हुए श्रोता। शास्त्रीय संगीत के अनुशासन में निखरी, मन्ना दा की आवाज की कशिश और उसका जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोला था।
मध्यांतर के दौरान मन्ना दा से बातचीत हुई तो पता चला कि अपने सुरों की तरह ही उनमें सरलता है, जीवंतता है और एक तरोताजा प्रवाह है। बातचीत में उन्होंने फिल्मी गीतों के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए कहा था कि इसके लिए नई पीढ़ी जिम्मेदार है। जो जीच बिकती है, बेचने वाला तो वही बेचेगा लेकिन लोगों को चाहिए कि गुणवत्ता से समझौता नहीं करें। जो स्तरहीन है, उसे नकार दिया जाना चाहिए। फिल्मी दुनिया में अपनी लोकप्रियता का श्रेय उन्होंने संगीतकार शंकर-जयकिशन को दिया था और मेहंदी हसन को अपना पसंदीदा गायक बताया था।
मन्ना डे उर्फ प्रबोध चंद्र डे उस दौर के गायक थे जब फिल्मी गीतों का जीवन से गहरा जुड़ाव था। घर-आंगन से लेकर खेत खलिहान तक रेडियो बजता था और गीत तन्हाई में हमसफर, बेचैनी में शुकून और उल्लास के क्षणों में साथी बन जाया करते थे। मन्ना दा के शास्त्रीय संगीत की साधना में तपे हुए सुरों में आकाश जैसी ऊंचाई थी तो पाताल जितनी गहराई भी। यही कारण है कि जितनी विविधता उनके गाए गीतों में है, उतनी अन्य गायकों में कम ही है।
उस्ताद बादल खान और चाचा कृष्णचंद्र डे और बाद में उस्ताद अब्दुल रहमान खान और उस्ताद अमन अली खान से मिले शाीय संगीत के संस्कारों को उन्होंने सीने से लगाए रखा। शाीय संगीत के साथ ही रविन्द्र संगीत की तरलता भी उन्हें विरासत में मिली थी। 'पूछो न कैसे मैंने रात बिताई (राग अहीर भैरव-फिल्म मेरी सूरत तेरी आंखें), 'तू प्यार का सागर है (राग दरबारी फिल्म सीमा), 'झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया (राग दरबारी, फिल्म मेरे हुजूर), 'लागा चुनरी में दाग (फिल्म दिल ही तो है-राग भैरवी) जैसे ढेर सारे रागों पर आधारित गीत हैं जो मन्ना दा की आवाज पाकर अमर हो गए।
गीत महज शब्द नहीं होते। उनके पीछे भावों का माधुर्य, अनुभूतियों की जीवंतता जरूरी है। यही मन्ना दा की खासियत थी। उनके गाए गीतों में भाव जी उठते थे। तभी तो 'कसमें वादे प्यार वफा सुनकर स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आंखें छलक पड़ी थीं। फिल्म आनंद में राजेश खन्ना पर फिल्माया गया गीत 'जिंदगी कैसी है पहेली हाए आज भी लोकप्रियता की पायदान पर काफी ऊंचे है। मन्ना दा की आवाज में यह गीत सुनकर लगता है जैसे लहरें समंदर के किनारों से गुफ्तगू कर रही हों और जीवन का फलसफा सुना रही हों। लाखों लोग हैं जो 'मेरा नाम करेगा रोशन सुनते-सुनते जवान हुए हैं उनके लिए मन्ना दा की आवाज बचपन में पिए गए दूध की तरह पोषण करनेवाली या पिता के कंधे पर बैठकर दुनिया देखने जैसी यादगार है। मन्ना 'दा के अधिकांश गीत जिंदगी के साज पर छेड़े गए तराने हैं। फिल्म सफर में लहरों का सीना चीरते हुए आगे बढ़ता मल्लाह जब गाता है, 'नदिया चले चले रे धारा.... तुझको चलना होगा तो लगता है जैसे जिंदगी आवाज दे रही है। 'दो बीघा जमीन का गीत 'अपनी कहानी छोड़ जा कुछ तो निशानी छोड़ जा जैसे कई गीत हैं जो जिंदगी से वैसे ही बावस्ता हैं जैसे दिल के साथ धड़कन। यह गीत लोगों की जुबान पर चढ़े और दिल में उतर गए। 

भक्ति गीतों की बात करें तो 'तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम आज भी एक ऐसे भावलोक में ले जाता है जहां दीन-हीन, भक्त पूरी श्रध्दा व समर्पण से भगवान के समक्ष नतमस्तक है। फिल्म 'तीसरी कसम में 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे गीत याद आता है। लोकगीतों की ठेठ जमीन से जुड़ी मिठास, खनक और गंवई उल्सास सुरों में ढाल पाना सिर्फ मन्ना दा के ही बस की बात थी। 
मन्ना दा ने शास्त्रीय गीतों के अलावा हल्के-फुल्के गीतों को भी उसी खूबसूरती से गाया। 'जोड़ी हमारा बनेगा कैसे जानी जैसे कई गीत हैं जो हास्य अभिनेताओं पर फिल्माए गए और बेहद लोकप्रिय हुए। 
 उनकी हर महफिल में एक गीत जरूर बजता था। यह मन्ना दा का सबसे पसंदीदा गीत था। प्रथम मिलन के विभिन्न रंगों को जिस खूबी से इस गीत में  सजाया गया है वह दुर्लभ है। मधुकर राजस्थानी के लिखे इस गीत के बोल हैं सजनी... नथली से टूटा मोती रे, कजरारी अंखियां रह गईं रोती रे। आज ऐसा लगता है जैसे सचमुच संगीत की नथली का एक मोती टूट गया और अंखियां बस रोती रह गईं।

Wednesday, October 23, 2013

देश सोना खोज रहा है

अजीब लोग हैं,  उन्नाव में सोने के लिए खोदाई हो रही है तो परेशान हैं और जब खोदाई नहीं हो रही थी, तब भी चिंता में घुले जा रहे थे। पहले कह रहे थे कि सरकार हजारों टन सोने की तरफ ध्यान ही नहीं दे रही है और अब कहते हैं यह महज अंधविश्वास को बढ़ावा देना है।
सोने के भंडार की खबर क्या चली, कोयला घोटाला, आसाराम सब पीछे छूट गए। लोगों की दिलचस्पी अगर किसी चीज में है तो सिर्फ सोने में। क्या सोना मिलेगा, यही प्रश्न अखबार के संपादक से लेकर सब्जी के दुकानदार तक के भेजे में घुसा पड़ा है। ज्यादातर लोग इस प्रश्न का सीधा जवाब देने के बजाय बीच के रास्ते पर चल रहे हैं। वे कहते हैं, ईश्वर चाहें तो कुछ भी संभव है। यानी की सोने का मिलना भी और ना मिलना भी।
सोना दिलोदिमाग पर छाया हुआ है। लोग टीवी पर सोने को चमकता देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि अखबार के पहले पेज पर भरपूर सोना दिखाई दे। सपने में दिखा यह सोना लोगों की जागती आखों में सुनहले सपने सजा रहा है । फिर देश में कई शहरों में ऐसी खबरें आईं कि अमुक व्यक्ति को सपने में अमुक स्थान पर सोना दिखाई दिया। होड़ मच गई। कई लोगों ने तो छुट्टी लेकर भरपूर नींद लेने की कोशिश की, क्या पता उन्हें भी कहीं सोना दिखाई दे जाए।


पूरे देश में जैसे सोने की लहर है। लोग सोने के  बारे में सोच रहे हैं, सोने को लेकर बातें कर रहे हैं और सोने के सपने देख रहे हैं। जय हो सपने देखनेवाले बाबाजी की। उन्होंने देश को कहां से कहां पहुंचा दिया। एक ही झटके में देश ने कितना विकास कर लिया। कल तक जो लोग प्याज देखने के लिए लालायित थे, आज सोना देखने के लिए उत्सुक हैं। कल तक हालात और थे। तमाम कोशिशों के बावजूद सपना था कि रोजी-रोटी, मकान, बिटिया की शादी, पुत्र की नौकरी  से आगे बढऩे के लिए तैयार ही नहीं था। आज वह सोने से कम पर राजी ही नहीं है।

वैसे भी इस देश का सोने से बड़ा गहरा और पुराना रिश्ता है। तभी तो यह सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। कई लुटेरों ने तो सोना पाने के लिए ही बार-बार आक्रमण किया और लूटकर चलते बने। मनोज कुमार ने भी वर्षों पहले इस देश की विशेषता बताते समय कहा था कि यहां की धरती सोना उगलती है। अब लोग धरती के पेट में ऊंगली डालकर सोना उगलवाना चाहते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है?
यही सोचते-सोचते मैं बड़ी मुश्किल से सोया और एक भयानक सपना देखकर मेरी आंख खुल गई। मैंने देखा कि सोने की चमक बदलते-बदलते लोभ के काले रंग में बदल गई। हमारा चेहरा बदरंग होता जा रहा था और विवेक कहीं दूर खड़ा हंस रहा था।

Thursday, October 10, 2013

वाह रे! झांसाराम

लोगों को कल्याण व मुक्ति की राह दिखाने के नाम पर बाप-बेटे किशोरियों से बलात्कार करते रहे और लोग उनके समक्ष नतमस्तक होते रहे। जय राम जी की।

आज भी किन्हीं मंघाराम जी का फोन आता है। बेहद गुस्से में हैं। कहते हैं बापू के बारे में ऐसी खबरें मत छापिए। यह झूठ है, उन्हें बदनाम करने की साजिश है। मंघाराम जी आस्था से भरे हुए हैं। ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं लगते। धर्म व अध्यात्म के बारे में उनका ज्ञान अंधश्रद्धा से शुरू होता है और वहीं खत्म हो जाता है। तर्क व सोच-विचार के सवाल पर उखडऩे लगते हैं। कहना चाहता हूं कि झांसाराम और फांसाराम जैसे लोगों को बलात्कारी बनाने में आप जैसे लोगों का बहुत बड़ा हाथ है, लेकिन कह नहीं पाता। बुजुर्ग हैं, व्यथित हैं। उनके मन को और ठेस पहुंचाना ठीक नहीं।

सच तो यह है कि इन दोनों ने इस देश में सदियों से संचित, पोषित, पूजित   संस्कृति  के साथ बलात्कार किया है, आस्था को लूटा है, आशा और विश्वास को ठगा है। दुनियाभर में 425 से अधिक आश्रम खोल दिए, 50 से अधिक गुरुकुलों की स्थापना कर दी और देश में हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया। वाह रे! झांसाराम।

अभी भी ऐसे लोग हजारों की संख्या में (हो सकता है लाखों में हों) हैं जो झांसाराम को अपना उद्धारक मानने के लिए बेताब हैं। उधर, झांसाराम भी देश के सबसे महंगे वकील के सहारे बच निकलने की कोशिश में हैं। झांसाराम को एक बार रू-ब-रू सुनने का मौका मिला था, तेल-फुलेल बेचनेवाले एक मदारी से ज्यादा कुछ नहीं लगे। उन्हें पांच मिनट भी सुनना मुश्किल लगा। उनके भक्तों में कुछ ऐसे लोग भी मिले जो मानते  हैं कि उनकी दुकान इन्हीं के आशीर्वाद से ही चल रही है या उनका कारोबार इन्हीं की कृपा से ही चल रहा है। जय राम जी की।

ऐसे लोग उन्हें बापू कहते हैं। बापू शब्द का ऐसा अवमूल्यन। ऐसे लोग हजारों की संख्या में हैं जो शब्दों की बाजीगरी, भाव-विह्वल होकर रोने-धोने की कला में माहिर हैं। लोगों के भोलेपन और अंधश्रद्धा के सहारे अपनी दुकान चमकाए जा रहे हैं। खुद अपनी राह का पता नहीं, दूसरों को भक्ति व ज्ञान की राह पर धकेल रहे हैं। अंधा अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत। जिस देश ने विश्व को गीता जैसा प्रकाश दिया, वहां ऐसी अंधेर। इतना घना अंधेरा। श्रीकृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, संत कबीर, मीरा, नानक की भूमि पर ऐसे महिषासुर कब तक पैदा होते रहेंगे। मां दुर्गा इस बार दशहरा पर ऐसे राक्षसों का समूल सफाया करें और हमें विवेक दें। हमारी विवेकहीनता ही ऐसे लोगों की राह आसान करती है और जो इनसान कहलाने के काबिल भी नहीं हैं वे भगवान कहलाने लगते हैं।
विजयदशमी की ढेर सारी शुभकामनाएं।

Tuesday, October 1, 2013

लालू को जेल

राजनीति के अपराधीकरण की खबरों के बीच चारा घोटाला मामले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के जेल जाने  व मेडिकल एडमिशन फर्जीवाड़ा में कांग्रेस सांसद रशीद मसूद को सजा सुनाने की खबर राहत भरी है। ऐसा नहीं है कि इनके जेल जाने से राजनीति में बाहुबलियों का वर्चस्व कम हो जाएगा या भ्रष्ट राजनेताओं पर नकेल कस जाएगी, फिर भी यह विश्वास तो कहीं न कहीं मजबूत होता ही है कि अंत बुरे का बुरा और इस विश्वास को बनाए रखने की जरूरत है।
लालू यादव बिहार के आम आदमी के नेता बनकर उभरे और उन्होंने आम आदमी के विश्वास को उस्तरे से मूंडा। उनके शासनकाल में बेजोड़ प्रतिभाओं की भूमि बिहार की ऐसी दुर्गति हुई कि वह पिछड़ेपन का पर्याय बन गया। बिहार में उद्योग-धंधे ठप पड़ गए और अपराध हजारों रंग-रूप में खूब फला-फूला। राजनेताओं की छवि को रसातल में पहुंचाने और उन्हें फूहड़ और हास्यास्पद बनाने में लालू ने कोई कसर नहीं रखी थी। अपनी हास्यास्पद टिप्पणियों से उन्होंने राजनेता और नौटंकी के विदूषक के अंतर मिटा दिया था। इसी का परिणाम है कि लालू के नाम पर जितने चुटकुले बने, उतने चुटकुले किसी अन्य राजनेता के हिस्से में नहीं आए।
यह एक विडम्बना ही है कि चारा घोटाला मामले में न्याय होने में 17 साल लग गए लेकिन इससे इसका महत्व व प्रभाव कम नहीं हो जाता। रसीद का मामला तो इससे भी पुराना 1990-91 का है। तत्कालीन वीपी सिंह सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे रसूद को अयोग्य उम्मीदवारों को सीटें आवंटित करने का दोषी ठहराया गया है। कानून के शासन के प्रति लोगों की आस्था बनी रहे उसके लिए जरूरी है कि न्याय में देर न हो।
आज स्थिति यह है कि लोग राजनीति में आना ही इसलिए चाहते हैं कि यहां सफलता का मतलब है लूट की छूट। यहां तक कि ग्राम प्रधान या शहरों में पार्षद बनने वाला ही लाखों कूट लेता है। लालू व मसूद के इस हश्र से राजनीति को धन बटोरने का जरिया मान चुके लोगों को एक संदेश तो मिला ही होगा कि राजनीति में लूट का मतलब हमेशा छूट नहीं होता। ऐसे लोगों की जगह सिंहासन नहीं, सीखचों के पीछे है।
ऐसे फैसले संतोषजनक तो हैं लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि फिर कोई 'लालूÓ नहीं बने। राजनीति के गंदे पानी में मगरमच्छों का जन्म न हो, इसके लिए एकाध मगरमच्छ का पकड़े जाना ही पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता पूरे पानी को बदलने की है।