Wednesday, December 14, 2016

गांव में आ रहा बदलाव








इस बार गांव का मौसम बेहद सुहावना था। सर्दी अपने पांव पसार रही थी। न्यूनतम तापमान दस डिग्री के आसपास बना हुआ था। कुछ दिनों बाद कोहरे ने भी रंग दिखाया। ऐसे मेंं ताजी अदरक की चाय की चुस्कियां, लिट्टी-चोखा, मित्रों से मुलाकातें और दो-चार दिन के अंतराल के बाद निमंत्रण अर्थात् कचौड़ी-सब्जी का मजा ही कुछ और था। पालक सस्ती तो थी ही, ताजी भी थी, यहां कोयम्बत्तूर में १३० रुपए किलो मिलनेवाली मटर वहां महज ४० रुपए किलो में। वह भी ताजी और स्वाद ऐसा कि कच्चे ही चबाने का मन करे। आलू दस रुपए किलो मिल रही थी। बाजार से सब्जी लेकर आते समय खुशी होती थी। सौ रुपए लेकर जाओ तो झोला भरकर सब्जी लाओ। ताजी और स्वाद से भरपूर सब्जियां। बड़े शहरों में न तो यह स्वाद है और न ही पौष्टिकता।
गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूलों में अब बच्चों की संख्या घट रही है। ज्यादातर बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं। क, ख, ग के बजाय एबीसीडी सीखने को प्राथमिकता दे रहे हैं। सुबह हार्न बजाती हुई स्कूल वैन पहुंचती है और शाम को घर के पास छोड़ देती है। फीस ज्यादा है लेकिन ऐसे स्कूल अब प्रतिष्ठा से जुड़ गए हैं। लोग बताते हैं कि अब वही बच्चे सरकारी स्कूल जाते हैं जिनके अभिभावक बेहद दीन-हीन हैं।
गांव के बाहर की सडक़ मरम्मत होने के बाद से ही दुर्घटना वाली सडक़ बनती जा रही है। आए दिन भिड़ंत होती रहती है। कई लोगों की जान जा चुकी है। गांव में बारात आई थी। कोहरा भी घिरा था। भिड़ंत हुई दो लोगों को मरहम-पट्टी करानी पड़ी।
गांव में आ रहा बदलाव सुबह ही दिखाई देना लगता है। मौसम बरसात का हो, या शीतलहर चल रही हो, गर्मी के दिन हों या कोहरे के कारण दस मीटर की दूरी पर भी कुछ भी देखना मुश्किल हो, इन सबको परास्त करते हुए लोग अब अलसुबह ही सडक़ पर दिखाई देने लगते हैं। कभी राजरोग कहे गए शुगर और बीपी जैसे रोग अब मध्यमवर्ग को चपेट में लेने लगे हैं। इनसे बचने या नियंत्रित रखने के लिए टहलने निकल पड़ते हैं। इनमें वे महिलाएं भी शामिल हैं जिनके पहले की पीढिय़ां जांत से गेहंू पीसती थीं, चकरी पर दाल दलती थीं और जीवनशैली से जुड़े रोगों के बारे में जानती भी नहीं थीं।
एक दिन टहलने जा रहा था तो देखा कि एक लडक़ा साइकिल से ईंट ढो रहा था। वह भी साइकिल के डंडे वाले हिस्से के नीचे। आसान नहीं था लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है।

Monday, October 24, 2016

बुढिय़ामाई

आज पत्नी से बात करते हुए अचानक मुंह से निकला कि इस बार गांव चलेंगे तो बुढिय़ामाई के लिए कुछ ले चलेंगे।
बुढिय़ामाई! शब्द सहज ही मुंह से निकल गया था। अपनी आजी(दादी मां) को हम लोग बुढिय़ामाई कहते थे।
पत्नी ने भी वही शब्द दोहराया और मेरा मुंह देखने लगी।
बुढिय़ामाई! जिसे गए हुए दो साल होने को आ रहे हैं। आज भी अचानक याद आ जाती है। उसका चेहरा, सन की तरह बाल, लम्बी-लम्बी अंगुलियां, ममता से भरी आंखें और आशीर्वाद में गंगा-जमुना की तरह बढऩे का आशीर्वाद देती हुई।
बुढिय़ामाई १९ वर्ष की आयु में जो विधवा हुईं तो सुखों से जैसे जिंदगीभर के लिए नाता टूट गया और संघर्ष हमसफर बन गया। घोर गरीबी, हर कदम संघर्ष, हर सांस पीड़ा। लेकिन मजाल है कि चेहरे पर कभी दर्द छलका हो। हमेशा दर्द को पीती-परास्त करतीं रहीं। ९२-९३ वर्ष की उम्र में जब मौत हुई, तब तक न तो शुगर था और न ही बीपी।
पुरुष सत्तात्मक समाज में १९ वर्ष की विधवा, वह भी ब्राह्मण परिवार की। कितना कठिन रहा होगा जीवन। मैंने बचपन में होश संभाला तो पिता जी दूसरी शादी कर चुके थे और चाचा जी अलग दूसरे गांव में रहते थे। एक पैसे की भी आमदनी नहीं थी और खेती-बारी से इतना नहीं होता था कि गुजारा हो सके। हम लोगों को पता नहीं था कि अन्य बच्चों से हमारा भाग्य अलग है। हम भी दूसरे बच्चों की तरह खिलौनों, कपड़ों, खाने-पीने की वस्तुओं की जिद करते और दादी मां उस जिद को पूरा करती थीं। कैसे, कहां से, भगवान जानें। पिता, दादा या दादी सब कुछ बुढिय़ामाई ही थीं।
दादी मां किसी पुरुष की तरह खटती थीं। दिन हो या रात, अंधेरा हो या बरसात, कुछ भी उनके कदमों को रोक नहीं पाता था। गजब की जीवंतता थी। कहते हैं, जिनके दिल साफ होते हैं, वे दूसरों पर सहज ही विश्वास कर लेते हैं। बुढिय़ामाई ऐसी ही थीं। सब पर विश्वास करतीं थीं।
एक बात जो अब लोगों में दिखाई नहीं देती, वह यह कि बुढिय़ामाई सबसे ऐसे हुलस कर मिलती थीं, जैसे वह भगवान हों। बुढिय़ामाई के बारे में लिखने बैठता हूं तो दिल में कुछ उमडऩे-घुमडऩे सा लगता है। इतनी सारी यादें जीवंत हो उठती हैं और मन करता है, रोता रहूं।
बुढिय़ामाई बहुत बड़ी थीं। दुखों के पहाड़ के समक्ष अविचलित, अडिग, अपराजित। आदमी या औरत का कद ऐसे ही तो तय होता है, कि वह दुखों के सामने किस रूप में नजर आया। भरभराकर गिरा या चट्टान की तरह खड़ा रहा। जीवटता ही तो जिंदगी को वास्तविक आकार देती है। मेरा तो मानना है कि दुखों के बिना जीवन में बहुत बड़ी कमी रह जाती है। दुख जीवन का सबसे चटख, गाढ़ा रंग है, मांजता है, सजाता है, पकाता है जैसे धूप में पकी हुई बालियां या चूल्हे में पकती हुई रोटी।

Monday, October 17, 2016

फिर कोई ‘मुच्छड़’ नहीं होगा!

शत-शत नमन् और श्रध्दांजलि
‘बाबू’ के नहीं रहने की खबर व्हाट्सएप से मिली। जून में गांव गया था तो मन में एक चाह थी कि बाबू के दर्शन कर आऊं। पता नहीं, फिर भेंट हो न हो। बाबू के पांव छुए तो दिमाग पर थोड़ा सा जोर देने के बाद उन्होंने थोड़ी देर में ही पहचान लिया था। मुझे बहुत खुशी हुई थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस इलाके का हूं वहां पिता को भी सम्मान से ‘बाबू’ कहते हैं। मैं भी उन्हें ‘बाबू’ कहता था। सच तो यह है कि पिता जैसा प्यार यदि किसी से मिला तो उन्हीं से मिला इसलिए एक अदृश्य अपनापन जुड़ा रहा। जब उनके साथ रहता था तो कभी उन्होंने इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि मैं उनका सगा बेटा नहीं था और मैं भी सदा श्रध्दा से नतमस्तक रहा। निम्हांस में जब वे भर्ती थे तो मैंने उन्हें आम खिलाया था। मुझे जिस संतोष की अनुभूति हुई थी, वह शब्दातीत है। जिस आदमी ने हजारों बार खिलाया हो, उसे एक बार भी कुछ खिलाना मेरे लिए बेहद सौभाग्य का पल था। ‘बाबू’ की ढेर सारी आदतों में एक आदत यह भी थी कि वे जब भी कुछ खाते थे, दूसरों को खिलाकर ही खाते थे। ऐसी उदारता कितने लोगों में है?
गांव गया था तो पिछले कुछ सालों से अस्वस्थ चल रहे ‘बाबू’ चारपाई पर लेटे थे। हमेशा दूसरों की मदद की, अब दैनिक क्रियाओं के लिए भी दूसरे पर निर्भर थे। यह देखना बेहद दुखद था। यह उम्र की क्रूरता थी या क्या था, समझ नहीं पाया। कहते हैं, ईश्वर बड़ा दयालु होता है। तो फिर ‘बाबू’ के साथ यह अन्याय क्यों?यह प्रश्न मेरे ही मन में नहीं, उन्हें जाननेवाले बहुत सारे लोगों के मन में उठता था। बाबू अजातशत्रु थे। शायद ही उनकी किसी से कभी दुश्मनी हुई होगी। मारवाडिय़ों में वे ‘भैयाजी’ नाम से लोकप्रिय थे। मुझे नहीं लगता कि ऐसी इज्जत किसी और ने कमाई होगी। यूपी वाले उन्हें ‘मुच्छड़’ कहते थे। मूछें उनके चेहरे पर खूब फबती थीं। लम्बा-चौड़ा कद, बड़ी-बड़ी आंखें और चेहरे का तेज और रोब बढ़ाती मूंछें। मूंछें शान, सम्मान और गरिमा की प्रतीक हैं तो ‘बाबू’ से ज्यादा मूंछों का हकदार शायद ही कोई हो। एक बात तो तय है कि अपने समाज में शायद ही फिर कोई ‘मुच्छड़’ हो। बात सिर्फ मूंछों की नहीं, वह उदारता, वह धर्म परायणता, वह करुणा कोई कहां से लाएगा?
‘बाबू’ सभी के अपने थे। यूपी से कोई भी आता, उसके लिए दिल और दरवाजे दोनों खोल देते थे। कितने लोगों को शरण दी, कितने लोगों के सहारा बने। कितनों को नौकरी-धंधे पर लगाया, अंगुलियों पर गिनना संभव नहीं है। मेेरे परिवार के लिए तो मसीहा ही थे।
आज उनके नहीं रहने की खबर पर यादों का एक बवंडर सा उठ रहा है। खबरों की दुनिया में जीने की आदत पड़ गई है लेकिन यह महज खबर नहीं है। कयोंकि वे सिर्फ तारकेश्वर नाथ तिवारी, ‘मुच्छड़’, ‘भैयाजी’ ही नहीं, ‘बाबू’ भी थे। ‘बाबू’ घावों पर मलहम थे, भूख लगने पर रोटी थे और थे एक विशाल बटवृक्ष जिसकी छांव जीवनपर्यंत नहीं भूल पाऊंगा।
उस महान आत्मा को शत-शत नमन् और श्रध्दांजलि।