Thursday, June 20, 2013

कितने पत्थर, कितने फूल

ग़ज़ल की न तो समझ है, न ही जानकारी। फिर भी ग़ज़ल पर गाहे-बगाहे हाथ जरूर आजमाता हूं तमाम नाकामियों  के बावजूद ग़ज़ल की कशिश है की कम होने का नाम ही नहीं लेती। ऐसी ही एक कोशिश के दौरान निकली चंद  पंक्तियाँ पेश-ए -खिदमत हैं। मेरी कोशिश कितनी कामयाब हुई, बताने की मेहरबानी करें। 

कितने पत्थर, कितने फूल
ऐ दिल इस पचड़े  को भूल ।

वक्त भी देखो कैसा आया 
फूलों जैसे खिले बबूल ।

फैली खबर की तुम आओगे
बेमौसम खिल  उठे फूल ।

तेरा-मेरा एक वहम है
एक बागवां, लाखों फूल।

उसकी बातें  सुनी हैं जबसे
बाकी बातें हुईं फिजूल ।


Wednesday, June 12, 2013

ऐसा कैसे हुआ होगा

हैरान हूँ, सोच नहीं पा रहा हूँ
ऐसा कैसे हुआ होगा
बेटी को जंजीरों में बांधते समय
क्या कांपे नहीं होंगे पिता के हाथ
और कैसे भरा होगा मुंह में कपडा
ताकि उसकी चीख बाहर न जाने पाए।
अपने ही घर में कैद
हेमावती की चीख
पड़ोसियों तक पहुँचने में
आखिर क्यों लग गए चार साल।
बगल के घर में कोई चार साल से कैद है
और हमें खबर तक नहीं।
ऐसा कैसे हुआ होगा .
बंद कमरे में जीने की आदत
हमें कहाँ ले जा रही है
वहां जहाँ हम चीखेंगे
और हमारी चीख सुननेवाला
कोई न होगा।
(बेंगलुरु के मल्लेश्वरम इलाके में एक लड़की को उसके घर में चार साल तक कैद  रखा गया, फ़िलहाल वह अस्पताल में है. )