अरे! आप कब आये? रुकिए, रुकिए, मैं आ रहा हूँ.
कक्कू ने कहा तो मेरे कदम रुक गए.
मेरी इच्छा हो रही थी कि वहां तक जाऊं, जहाँ चम्पा काकी थीं.
कक्कू गावं के सबसे बुज़ुर्ग लोगों में से हैं, इसीलिए सारा गाँव उन्हें कक्कू कहता है.पास आने पर मेरा हाल पूछने लगे, मैंने कहा, पहले आप बताइए कि काकी कैसी है? बोले, क्या बताऊँ. कोमा में है.देखो जितने दिन चल जाए. कुछ बोल नहीं पाती.आँखों के कोरों से जब-तब कुछ आंसू टपकते हैं.बस.
डॉक्टर क्या कहते है,
जवाब दे चुके हैं.,
कक्कू के स्वर में कुछ ऐसा था, जिसे शब्दों में बता पाना कम से कम मेरे लिए संभव नहीं है.
मैंने कहा, आपने मुझे वहां आने से क्यूँ रोक दिया.
बोले, आपका वहां आना ठीक नहीं था, मैं उसके कपडे बदल रहा था.थोड़ी देर रुके फिर बोले, अब वहां कोई नहीं जाता. अब तो सब कुछ खाट पर ही....नहलाना- धुलाना, कपडे बदलना, जैसे-तैसे कुछ खिला देना. इन्हीं सब में लगा रहता हूँ.
बात आगे चले इससे पहले बता दूं कि मैं इलाहाबाद जिले के एक गाँव का हूँ और यह बात वहीँ की है. शहर से (हमारे गाँव में परदेश कहा जाता है ) साल में एकाध बार ही गाँव जाना हो पाता है. गाँव जाने पर लोग देखने या मिलने जरूर आते हैं.छोटा सा गाँव है, अभी थोडा-बहुत अपनापन बना हुआ है. मिलने आने वालों में सबसे आगे हुआ करती थीं चंपा काकी. कहाँ है हमार बेटवा, कहते हुए आतीं. जोर-जोर से बोलतीं, बड़ी आत्मीयता से. बड़ी दबंग महिला थी. गाँव गया और जब चम्पा काकी मिलने नहीं आई तो पूछा कि चम्पा काकी नहीं दिखाई दीं. बताया गया कि बीमार है.मैंने कहा मैं मिलकर आता हूँ. बताया गया कि अब न तो वो बोल पाती हैं न ही कुछ सुन या समझ पाती हैं. मुझे आश्चर्य हुआ कि चम्पा काकी न बोल पायें, ऐसा कैसे हो सकता है?
बहरहाल, सबसे आगे बढ़कर घुलने-मिलनेवाली चम्पा काकी, सबका हाल पूछनेवाली चम्पा काकी सचमुच बोल पाने में असमर्थ थी. वक़्त इतना क्रूर हो सकता है, कौन जानता था.
आठ दिन गाँव में रहा, जब भी जाता कक्कू को काकी की तीमारदारी में लगा पाता.कभी उनके कपडे साफ़ करते नजर आते, कभी नहला रहे होते. या कपडे पहना रहे होते, कभी बालों में कंघी करने के बाद मांग में सिन्दूर भर रहे होते. हर बार कहते, रुकिए मैं आ रहा हूँ. मुस्कुराकर पूछते क्या हाल है.उनके चेहरे पर मैंने कभी खिन्नता नहीं देखी. कभी नहीं लगा कि वह कोई ऐसा काम कर रहे हैं जो उन्हें पसंद नहीं है. कई माह से बीमार पत्नी की सेवा कर रहे थे, बिना किसी शिकायत के.
पिछली बार गाँव गया तो काकी जा चुकी थीं. मैंने कक्कू को काकी की सेवा की याद दिलाई और कहा, वह महान कार्य था. बोले, इसमें कोई महानता-वहानता नहीं. वह मेरी धर्म पत्नी थी और उसकी देखभाल मेरा धर्म. उसकी जगह मैं होता तो वह वही करती जो मैंने किया. छोडो,अपना सुनाओ, कैसे हो?
कक्कू ने कहा तो मेरे कदम रुक गए.
मेरी इच्छा हो रही थी कि वहां तक जाऊं, जहाँ चम्पा काकी थीं.
कक्कू गावं के सबसे बुज़ुर्ग लोगों में से हैं, इसीलिए सारा गाँव उन्हें कक्कू कहता है.पास आने पर मेरा हाल पूछने लगे, मैंने कहा, पहले आप बताइए कि काकी कैसी है? बोले, क्या बताऊँ. कोमा में है.देखो जितने दिन चल जाए. कुछ बोल नहीं पाती.आँखों के कोरों से जब-तब कुछ आंसू टपकते हैं.बस.
डॉक्टर क्या कहते है,
जवाब दे चुके हैं.,
कक्कू के स्वर में कुछ ऐसा था, जिसे शब्दों में बता पाना कम से कम मेरे लिए संभव नहीं है.
मैंने कहा, आपने मुझे वहां आने से क्यूँ रोक दिया.
बोले, आपका वहां आना ठीक नहीं था, मैं उसके कपडे बदल रहा था.थोड़ी देर रुके फिर बोले, अब वहां कोई नहीं जाता. अब तो सब कुछ खाट पर ही....नहलाना- धुलाना, कपडे बदलना, जैसे-तैसे कुछ खिला देना. इन्हीं सब में लगा रहता हूँ.
बात आगे चले इससे पहले बता दूं कि मैं इलाहाबाद जिले के एक गाँव का हूँ और यह बात वहीँ की है. शहर से (हमारे गाँव में परदेश कहा जाता है ) साल में एकाध बार ही गाँव जाना हो पाता है. गाँव जाने पर लोग देखने या मिलने जरूर आते हैं.छोटा सा गाँव है, अभी थोडा-बहुत अपनापन बना हुआ है. मिलने आने वालों में सबसे आगे हुआ करती थीं चंपा काकी. कहाँ है हमार बेटवा, कहते हुए आतीं. जोर-जोर से बोलतीं, बड़ी आत्मीयता से. बड़ी दबंग महिला थी. गाँव गया और जब चम्पा काकी मिलने नहीं आई तो पूछा कि चम्पा काकी नहीं दिखाई दीं. बताया गया कि बीमार है.मैंने कहा मैं मिलकर आता हूँ. बताया गया कि अब न तो वो बोल पाती हैं न ही कुछ सुन या समझ पाती हैं. मुझे आश्चर्य हुआ कि चम्पा काकी न बोल पायें, ऐसा कैसे हो सकता है?
बहरहाल, सबसे आगे बढ़कर घुलने-मिलनेवाली चम्पा काकी, सबका हाल पूछनेवाली चम्पा काकी सचमुच बोल पाने में असमर्थ थी. वक़्त इतना क्रूर हो सकता है, कौन जानता था.
आठ दिन गाँव में रहा, जब भी जाता कक्कू को काकी की तीमारदारी में लगा पाता.कभी उनके कपडे साफ़ करते नजर आते, कभी नहला रहे होते. या कपडे पहना रहे होते, कभी बालों में कंघी करने के बाद मांग में सिन्दूर भर रहे होते. हर बार कहते, रुकिए मैं आ रहा हूँ. मुस्कुराकर पूछते क्या हाल है.उनके चेहरे पर मैंने कभी खिन्नता नहीं देखी. कभी नहीं लगा कि वह कोई ऐसा काम कर रहे हैं जो उन्हें पसंद नहीं है. कई माह से बीमार पत्नी की सेवा कर रहे थे, बिना किसी शिकायत के.
पिछली बार गाँव गया तो काकी जा चुकी थीं. मैंने कक्कू को काकी की सेवा की याद दिलाई और कहा, वह महान कार्य था. बोले, इसमें कोई महानता-वहानता नहीं. वह मेरी धर्म पत्नी थी और उसकी देखभाल मेरा धर्म. उसकी जगह मैं होता तो वह वही करती जो मैंने किया. छोडो,अपना सुनाओ, कैसे हो?