Friday, May 4, 2012

कव्वाली सौहार्द का सेतु

उस्ताद नजीर अहमद खान वारसी सूफियाना कव्वाली के बादशाह  हैं। उनके दादा पद्मश्री अजीज अहमद खान वारसी ने पोते को संगीत के संस्कार दिए और खयाल गायिकी की बारीकियां भी सिखाईं। विरासत में मिली कला को नजीर ने अपने भाई नसीर के साथ दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाया। परम्परागत संगीत के साथ कव्वाली पेश करने का उनका अंदाज निराला है। हिन्दुस्तानी संगीत की इस धारा को संजोकर रखने और इसे नए आयाम देने के लिए वारसी बंधु के रूप में मशहूर नजीर व नसीर अहमद खान की जोड़ी को वर्ष 2010 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाजा गया। हाल ही बेंगलूरु में कव्वाली की महफिल सजाने आए नजीर अहमद खान से कव्वाली विधा के प्रति लोगों के रुझान और उनकी गायकी के सफर के बारे में बातचीत की गई।
हैदराबाद के मूल निवासी नजीर बताते हैं कि पैदा हुआ तो घर में सूफियाना संगीत गूँज रहा था। तबले की थाप, हारमोनियम के सुर और गले से निकलती आलाप, सांस की तरह धड़कन में समाने लगे। ऐसे में संगीत से जुड़ाव लाजिमी था और दिल लगा ऐसा कि फिर कहीं और दिल न लगा। नजीर बताते हैं कि हजरत अमीर खुसरो, संत कबीर की रचनाएं जब वे गाते हैं तो दर्शक ताल से ताल मिलाते हैं। वे कहते हैं 'छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके या 'हर में हर को देखा  जैसी रचनाएं कालातीत हैं। सदियों से इन्हें गाया-बजाया जा रहा है लेकिन इनकी कशिश कभी खत्म नहीं होगी।
कव्वाली की लोकप्रियता घटने के सवाल को वे नकार देते हैं। कहते हैं, तेज रफ्तार के दौर में सुकून के लिए कव्वाली सुनी जा रही है। विशेषकर, नई पीढ़ी का कव्वाली की ओर रुझान बढ़ रहा है। नजीर बताते हैं, कव्वाली पूरी दुनिया को राजस्थान की देन है। कव्वाली की शुरूआत ख्वाजा मोइनुद्दीन अजमेरी ने की थी। राजस्थान की सरजमीं से निकली कव्वाली 8 50 साल के सफर में पूरी दुनिया में इबादत, मोहब्बत व भाईचारे का पैगाम दे रही है। उस समय कव्वाली की महफिलों को समां कहा जाता था, जिनमें खास लोग ही पहुंच पाते थे। लगभग तीन सौ साल बाद हजरत अमीर खुसरो व हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने इसे आम आदमी तक पहुंचाया। कव्वाली भारतीय भक्ति संगीत की संवाहक है। कव्वाली शब्द 'कौलÓ से बना है। कव्वाली का मतलब है ऊपर वाले के कौल को दुहराना, उसकी बताई राह पर चलना। कव्वाली सौहार्द का सेतु है। यह कहती है कि सभी समान हंै और इन्सानियत का जज्बा सबसे ऊंचा है। कव्वाली इंसान की आत्मा को जागृत करने वाला संगीत है। नजीर कहते हैं कि आधुनिक दौर में सूफियाना कव्वाली को लोकप्रिय बनाने में उस्ताद नुसरत फतेह अली खान का बड़ा योगदान है। पाकिस्तान के साबरी बंधु ने भी कव्वाली को खासा उरूज दिया लेकिन नुसरत साहब ने इसकी लोकप्रियता को नए मुकाम पर पहुंचाया।  नजीर कहते हैं, हमारी कोशिश है कि गंगा-जमुनी संस्कृति की यह धारा सूखने न पाए। कव्वाली हमारी तहजीब से जुड़ी है, एक विरासत है, बुजुर्गों की दुआ है। कव्वाली गायन हमारे लिए अपनी जड़ों को सींचने जैसा है। अल्लाह, रसूल की शान में हो या श्रीकृष्ण या श्रीराम की भक्ति में, कव्वाली पेश करते हैं तो हमें बड़ा सुकून मिलता है।
 यक़ीनन, यही सुकून श्रोताओं को उनकी कव्वाली सुनकर मिलता है। 
(चित्र- The Hindu से साभार। )