Friday, February 18, 2011

फाल्गुन आ गया है



यदि आपकी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई हो या आपकी जड़ किसी गाँव में हो तो संभव है कि आपको पता हो कि फाल्गुन आ गया है. अन्यथा, फाल्गुन का आना कोई क्रिकेट मैच तो है नहीं कि उसकी पल-पल क़ी खबर आप तक पहुँचाने के लिए प्रचार माध्यम जी-जान से जुटे हों. फाल्गुन का आना कोई रोचक या रोमांचक घटनाक्रम भी नहीं कि सबसे तेज और आगे होने का दावा करनेवाला मीडिया उसके  हर पहलू  को उघाड़े. फाल्गुन के आने का हल्ला मचाकर बाज़ार को भी कोई फायदा नहीं हो सकता. ऐसे में बेंगलुरु जैसी हाई टेक सिटी में रहनेवाले किसी व्यक्ति से यह उम्मीद करना कि उसे पता हो कि फाल्गुन आ गया है, ज्यादती ही तो है.
बेंगलुरु दिन दूनी रात चौगुनी गति से फ़ैल रहा है. अब यहाँ न तो आमों के बौर से फूटती मादक  गंध बची है, न ही अमराई में कूकती कोयल. सरसों की पीली चुनर पहने इठलाती, हवा के हिंडोले पर झूलती, लोटपोट होती गेहूं की बालियाँ भी नहीं हैं.अपने ही रस के भार से बद्द से चू पड़नेवाला महुआ भी तो नहीं है. ऐसे में फाल्गुन के आने का पता चले भी तो कैसे?
इन सभी की नामौजूदगी व् मेट्रो रेल के लिए जगह बनाने की मजबूरी के बावजूद बेंगलुरु किसी महानगर की तुलना में प्राकृतिक रूप से ज्यादा समृद्ध है. यहाँ सैकड़ों किस्म के फूल और विशाल वृक्ष हैं जो बेंगलुरु वासियों को प्रकृति से जोड़े रखने की एकतरफा कोशिश में लगे हुए हैं. आदमी की उदासीनता और भयावह तटस्थता के बावजूद ये हार मानने को तैयार नहीं हैं और कंक्रीट के जंगल, औद्योगिक कचरे और प्रदूषण से लड़ते हुए फाल्गुन के स्वागत में बिछे जा रहे है.
तेज रफ़्तार से, नाक की सीध में आगे बढ़ने की बदहवासी और ढेर सारा पैसा पाने के लोभ में लगे हम यदि फूलों के रंग, रूप, रस और गंध को नहीं देख और महसूस कर पा रहे हैं, हवा की फुसफुसाहट के साथ बजती पत्तों की पाजेब नहीं सुन पा रहे हैं तो इसमें फाल्गुन का क्या दोष?
दरअसल, फाल्गुन कोई महीना मात्र नहीं है, फाल्गुन तो प्रकृति में चल रहे महारास में शामिल होने, उसके साथ एकात्म भाव से जुड़ने और मस्त होने का निमंत्रण है, जो प्रकृति हमें हर साल देती है. पाश्चत्य संस्कृति के अन्धानुकरण से उत्पन्न मानसिक विपन्नता में भौतिक सुख समृध्दी  को ही सब कुछ मानकर उसके पीछे निरंतर भागने के कारण उस आनंद और उल्लास से हमारा नाता टूटता जा रहा है, जो हमारा स्वभाव है. हम इतने स्वार्थी और आत्म केन्द्रित होते जा रहे है क़ि दूसरे की मौजूदगी हमें अपनी निजता व् विकास में बाधा लगती है.सह अस्तित्व व् समन्वय के सूत्र हमारे जीवन से गायब हैं.घर परिवार से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक  में तरह-तरह के आयोजन हैं लेकिन इनमे किसी संगति या संगीत का नहीं, महज शोर-शराबे का आभास होता है.

कहा गया है, फाल्गुन में बाबा देवर लागे.एकल परिवारों के प्रचलन के कारण बाबा तो उपेक्षित और तिरस्कृत हैं ही, देवर और भाभी के बीच भी इतनी दूरी पैदा हो गई है क़ि हंसी-ठिठोली क़ी कौन कहे, सहज, सामान्य अपनत्व भी गायब होता जा रहा है. तरह-तरह क़ी मशीनों के बीच जीते-जीते मनुष्य भी एक मशीन बनता जा रहा है.संवेदना के आभाव में अंतर्वीणा बजे तो कैसे? बेशुमार महत्वाकांक्षाओं  के शिकार आधुनिक मनुष्य का जीवन यदि बदरंग है तो फाल्गुन क़ी बसंती बयार या रंग गुलाल क्या करेंगे?
इच्छाओं  और स्वार्थ के अनंत विस्तार के वर्तमान दौर में जबकि उदासी, खिन्नता, नीरसता और तनाव हमारे जीवन को बेढंगा, बदरंग और बेसुरा बना रहे हैं, यदि हमने फाल्गुन को ठीक से नहीं पहचाना तो वह दिन दूर नहीं जब हम स्वयं ही स्वयं को नहीं पहचान पाएंगे. उत्सव हमारा धर्म है और आनंद स्वभाव. फाल्गुन हमें हमारी याद दिलाने आया है.

Thursday, February 10, 2011

तुम हमें ही...


'क्या बात है! क्या चाहिए? 

ताज़ी हवा के झोंकों के बीच यह आवाज सुनकर मैं चौंका। सुबह जल्दी आंख खुलने पर मैं बाग की तरफ निकला था और एक नीम के पेड़ के नीचे खड़ा था।
'क्या मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं?
इस बार आवाज पहले से ज्यादा स्पष्ट थी। 
कौन हो सकता है, मैं सोच ही रहा था कि आवाज फिर उभरी- 'मैं नीम हूं। जिसकी छांव में तुम बैठे हो।
'आप... मैं हकबकाया ,, आप बोल सकती हैं? मेरा आश्चर्य प्रश्न में बदला। 
'हां क्यों नहीं। लेकिन क्या तुम सुन सकोगे?
'क्यों नहीं मेरे दोनों कान सही-सलामत हैं। मैंने कहा। 

'मेरी बात कान से नहीं, दिल से सुनी जा सकती है।
'कहिए, मैं दिल से सुनूंगा। मैंने आश्वासन दिया। 
नीम कहने लगी- 'मैंने मनुष्य के लिए क्या नहीं किया? खुद  गर्मी झेली लेकिन मनुष्य को पत्तियों की ठंडी छांव में सुलाया। जख्मों पर लेप बनी। सुबह दातुन बनकर मुंह साफ किया। यही नहीं, जिन्होंने मेरी पत्तियों का सेवन किया उनकी काया को रोग-दोष मुक्त रखा। खुद कार्बनडाई आक्साइड पीती रही लेकिन मनुष्य को प्राणदायिनी वायु बांटती रही। मेरी सूखी पत्तियों का धुंआ मछरों को भगाता रहा. मुझसे ज्यादा आक्सीजन देने की क्षमता किसी में नहीं। ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने में मैं सदियों से मनुष्य के साथ रही। मेरी पत्तियों को चबाकर पशु पलते रहे।  पहले लोग मुझमें शीतला माता का निवास मानकर मेरी पूजा करते थे। त्वचा रोग में मेरी पत्तियों से नहाते थे। बच्चों को मेरे आशीर्वाद के लिए मेरी पत्तियों पर लिटाया जाता था। मैं कितनी  खुश होती थी। लेकिन अब.....। नीम का गला भर्राने  लगा था। 
'अब मनुष्य बेहद क्रूर और स्वार्थी हो गया है। यह भी नहीं सोचता क़ि हम नहीं रहेंगे तो वह कहाँ रहेगा.
मुझे काट डालने पर तुला है। मेरे भाई-बंधु सब काटे जा रहे हैं।
हम तुम्हारी रक्षा कर रहे हैं और तुम हमें ही .....।
 नीम की सिसकियां उभरने लगीं थीं। मैं बेचैनी और ढेर सारे सवालों से घिरने लगा  था। 

तभी मेरी निगाह घड़ी पर पड़ी। 
मैं तुरंत वहां से चल पड़ा। 
मुझे कार्यालय पहुंचना था-
ठीक साढ़े दस बजे।

Thursday, February 3, 2011

आओ, कुछ पल बैठो साथ!

आओ, कुछ पल बैठो साथ!
कह लें, सुन लें, मन की बात!!
 

गया वक़्त फिर हाथ न आये!
जाये चला ना खाली हाथ!!
 

तुम आये कुछ ऐसे, जैसे !
जेठ के बाद हुई बरसात !!
 

तुम क्या जानो, कितना मुश्किल!
साथ में तुम, वश में जज्बात!!
 

साथी, बहुत कसक देते हैं!
साथ अधूरा, आधी बात !!
 

भूत, भविष्य की ज्ञानी जानें 
वर्तमान है, अपने हाथ!!