Thursday, November 29, 2012

भीतर मैं-बाहर चाँद

भीतर मैं
आय-व्यय, पाने -खोने की चिंता के साथ
महानगरीय आपाधापी और तनावों से घिरा
करवट बदल रहा था
बाहर चाँद
पूर्णिमा की ज्योत्स्ना बिखराए
मुस्कुराता हुआ छत पे टहल रहा था .


(चित्र  photobucket.com से साभार।)

Wednesday, October 17, 2012

किताबें बुलाती हैं

किताबें बुलाती हैं
 

मां की तरह
गोद में बिठाकर
पालती हैं, पोषती हैं
जीना सिखाती हैं.

किताबें चल देती हैं साथ
दोस्त की तरह
बोलती है, बतियाती हैं .
किताबें पिता की तरह
उंगली पकड़कर
राह दिखाती  हैं.

किताबें हमें जोड़ देती हैं
अतीत से भविष्य तक
असम्भव से अवश्य तक.

किताबें जेहन में घुल जाती हैं
करती हैं दिलो दिमाग को रोशन
किताबें हमें सजाती हैं.
 

किताबें मनुष्य और जिंदगी के बीच सेतु हैं
विवेक, विकास और उल्लास की हेतु हैं.








(चित्र- The Hindu से साभार )




Friday, May 4, 2012

कव्वाली सौहार्द का सेतु

उस्ताद नजीर अहमद खान वारसी सूफियाना कव्वाली के बादशाह  हैं। उनके दादा पद्मश्री अजीज अहमद खान वारसी ने पोते को संगीत के संस्कार दिए और खयाल गायिकी की बारीकियां भी सिखाईं। विरासत में मिली कला को नजीर ने अपने भाई नसीर के साथ दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाया। परम्परागत संगीत के साथ कव्वाली पेश करने का उनका अंदाज निराला है। हिन्दुस्तानी संगीत की इस धारा को संजोकर रखने और इसे नए आयाम देने के लिए वारसी बंधु के रूप में मशहूर नजीर व नसीर अहमद खान की जोड़ी को वर्ष 2010 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाजा गया। हाल ही बेंगलूरु में कव्वाली की महफिल सजाने आए नजीर अहमद खान से कव्वाली विधा के प्रति लोगों के रुझान और उनकी गायकी के सफर के बारे में बातचीत की गई।
हैदराबाद के मूल निवासी नजीर बताते हैं कि पैदा हुआ तो घर में सूफियाना संगीत गूँज रहा था। तबले की थाप, हारमोनियम के सुर और गले से निकलती आलाप, सांस की तरह धड़कन में समाने लगे। ऐसे में संगीत से जुड़ाव लाजिमी था और दिल लगा ऐसा कि फिर कहीं और दिल न लगा। नजीर बताते हैं कि हजरत अमीर खुसरो, संत कबीर की रचनाएं जब वे गाते हैं तो दर्शक ताल से ताल मिलाते हैं। वे कहते हैं 'छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके या 'हर में हर को देखा  जैसी रचनाएं कालातीत हैं। सदियों से इन्हें गाया-बजाया जा रहा है लेकिन इनकी कशिश कभी खत्म नहीं होगी।
कव्वाली की लोकप्रियता घटने के सवाल को वे नकार देते हैं। कहते हैं, तेज रफ्तार के दौर में सुकून के लिए कव्वाली सुनी जा रही है। विशेषकर, नई पीढ़ी का कव्वाली की ओर रुझान बढ़ रहा है। नजीर बताते हैं, कव्वाली पूरी दुनिया को राजस्थान की देन है। कव्वाली की शुरूआत ख्वाजा मोइनुद्दीन अजमेरी ने की थी। राजस्थान की सरजमीं से निकली कव्वाली 8 50 साल के सफर में पूरी दुनिया में इबादत, मोहब्बत व भाईचारे का पैगाम दे रही है। उस समय कव्वाली की महफिलों को समां कहा जाता था, जिनमें खास लोग ही पहुंच पाते थे। लगभग तीन सौ साल बाद हजरत अमीर खुसरो व हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने इसे आम आदमी तक पहुंचाया। कव्वाली भारतीय भक्ति संगीत की संवाहक है। कव्वाली शब्द 'कौलÓ से बना है। कव्वाली का मतलब है ऊपर वाले के कौल को दुहराना, उसकी बताई राह पर चलना। कव्वाली सौहार्द का सेतु है। यह कहती है कि सभी समान हंै और इन्सानियत का जज्बा सबसे ऊंचा है। कव्वाली इंसान की आत्मा को जागृत करने वाला संगीत है। नजीर कहते हैं कि आधुनिक दौर में सूफियाना कव्वाली को लोकप्रिय बनाने में उस्ताद नुसरत फतेह अली खान का बड़ा योगदान है। पाकिस्तान के साबरी बंधु ने भी कव्वाली को खासा उरूज दिया लेकिन नुसरत साहब ने इसकी लोकप्रियता को नए मुकाम पर पहुंचाया।  नजीर कहते हैं, हमारी कोशिश है कि गंगा-जमुनी संस्कृति की यह धारा सूखने न पाए। कव्वाली हमारी तहजीब से जुड़ी है, एक विरासत है, बुजुर्गों की दुआ है। कव्वाली गायन हमारे लिए अपनी जड़ों को सींचने जैसा है। अल्लाह, रसूल की शान में हो या श्रीकृष्ण या श्रीराम की भक्ति में, कव्वाली पेश करते हैं तो हमें बड़ा सुकून मिलता है।
 यक़ीनन, यही सुकून श्रोताओं को उनकी कव्वाली सुनकर मिलता है। 
(चित्र- The Hindu से साभार। )


Wednesday, April 18, 2012

क्रिकेट का जश्न

इन दिनों देश में जबर्दस्त खुशी का माहौल है। दुधिया रोशनी में नहाए स्टेडियम, इठलाती, बलखाती चीयर बालाएं, रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे-धजे क्रिकेटर, चौके-छक्के और तालियां बजाते लोग। यह सब देखने के लिए लालायित, कतारबध्द लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। जो खुशनसीब हैं स्टेडियम हो आते हैं, बाकी लोग टीवी पर सीधा प्रसारण देखकर संतोष कर रहे हैं।
उद्‌योगपतियों, फिल्मी सितारों की टीमें हैं जिनमें बोली लगाकर खरीदे गए खिलाड़ी हैं। दुनियाभर के खिलाड़ियों का जमघट है। डेयर डेविल्स, नाइट राडर्स जैसे नामों वाली टीमें हैं। घंटेभर पहले से ही विश्लेषण शुरू हो जाता है। कौन जीतेगा और क्यों जीतेगा, जैसे सवालों पर सेवानिवृत्त क्रिकेटर बहस करते हैं। समाचार चैनलों पर भी इसी चर्चा होती है। कौन सी टीम संतुलित है, और किसके चल जाने पर क्या हो सकता है? एक मैच खत्म होता है तो अगले दिन के मैच का इंतजार शुरू हो जाता है। जैसे क्रिकेट और यह देश एक-दूसरे के लिए ही बने हों।

क्रिकेट, इस देश में सरेआम सबसे ज्यादा बिकनेवाली चीज है। यही कारण है कि प्रति मैच लगभग चालीस करोड़ देकर उसके प्रसारण के अधिकार खरीदे जाते हैं। क्रिकेट की अपनी अलग ही दुनिया है, अपने भगवान भी। यहां न तो महंगाई की चिंता है, न ही सूखे से कोई परेशानी। देश में भ्रष्टाचार चरम पर होगा, यहां रोमांच चरम पर है। क्रिकेट का यह जश्न अब हमारी पहचान बनता जा रहा है। दुनिया में सबसे ज्यादा क्रिकेट के स्टेडियम हमारे देश में हैं और आबादी भी इतनी कि मैच कहीं भी हो, हजारों लोग तालियां बजाने के लिए मैदान में पहुंच ही जाते हैं। यहां दुधिया रोशनी देखकर आपको शायद ही अंदाजा हो कि हजारों गांव ऐसे हैं जहां अंधेरा भांय-भांय करता है। चौके-छक्के पर झूमते लोगों को देखकर कौन कहेगा कि यहां लाखों बेरोजगार हैं। यह खाते-पीते और डकारें लेते लोगों का खेल है जहां सवाल सिर्फ स्कोर जानने के लिए होते हैं। टीवी दिखाता है कि हमारे देश के लोग या तो स्टेडियम में तालियां बजाते हैं या किसी बाबा के दरबार में समाधान पूछते हैं।
आइए, इस जश्न में हम भी शामिल हो जाएं। आखिर नए भारत के निर्माण में हमारा भी कुछ योगदान तो होना ही चाहिए।

Monday, March 5, 2012

स्मृतियों में महकता गांव

लगभग बीस दिन गांव में बिताने के बाद बेंगलूरु लौटा। पता नहीं क्या है कि जब भी गांव से लौटता हूं, मन भारी और आंखें गीली होने लगती हैं। ऐसा लगता है जैसे कुछ बेहद कीमती और निहायत जरूरी, पीछे छूट रहा है। गंवई राजनीति के शिकंजे में कसमसाने के बावजूद गांव अभी भी ज्यादा जीने लायक लगता  है। सामूहिकता और भाईचारा को मजबूत करने वाले सामाजिक ताने-बाने का छिन्न-भिन्न होना मन को व्याकुल तो करता है फिर भी महानगरीय जीवन से उकताया मन शांति व सुकून ढूंढ़ ही लेता है। खेतों में पीली चुनर ओढ़े इठलाती सरसों का अछूता सौन्दर्य देखने के बाद मन करता है थोड़ी देर यहीं बैठे रहें। दूर-दूर तक खेत ही खेत, हरियाली से लदी, फलती-फूलती फसलें, पक्षियों की चहचहाहट और मोर का पींहकना, शहरों में ऐसी शांति व नैसर्गिक सुषमा दुर्लभ है। नौ बजे सोने के बाद सुबह छह बजे तक उठ जाने से जिस ताजगी का एहसास होता है, उसका क्या मोल हो सकता है? दोपहर में गन्ने के ताजा रस में मिली दही और शाम होते ही ताजा गर्म गुड़ हाजिर। एक मित्र की पत्नी के यहां से रोज दही व मट्‌ठा आ जाता था। उपली की धीमी आंच पर रखी, पकी मिट्‌टी की हांडी में पके दूध को जमाने से बनी दही, ललछौंह रंग और जमी ऐसी कि फेंको तो दीवार पर चिपक जाए। खाने के कई घंटे बाद सांसें महकती रहतीं। बेंगलूरु जैसे शहर में किसी भी कीमत पर यह संभव नहीं हो सकता।
रोजाना तीन किलोमीटर पैदल चलता और रात को बिस्तर पर लेटते ही नींद अपनी बाहों में ले लेती। थकान के बाद आनेवाली नींद जैसे अंग-अंग को दुलारती और सुला देती। महसूस हुआ कि शहर में रहने की विवशता की हम कितनी बड़ी कीमत चुकाते हैं।
गांव में लगभग तीन बार लिट्‌टी-चोखा का सामूहिक भोज हुआ। उपली की आग में पहले आलू, बैंगन, टमाटर आदि भुना जाता। बाद में आंच में ही लिट्‌टी पकाई जाती। भुर्ता तैयार किया जाता और फिर गर्म लिटि्‌टयों के साथ परोसा जाता। सोंधी-सोंधी लिट्‌टी के साथ भुर्ते के स्वाद के क्या कहने।


सामूहिक भोज के अवसर पर महुए के पत्ते से बने पत्तल की अनुपस्थिति खली। पता चला कि पत्तल व दोना, दोनों को प्लास्टिक की प्लेटों ने बेदखल कर दिया है। चाय की दुकानों में भी कुल्हड़ की जगह प्लास्टिक के कप दिखाई दिए तो मन तिक्त हो गया। दुकानदार का कहना था कि महंगा पड़ने के कारण कुल्हड़ के बजाय अब प्लास्टिक के कप ही इस्तेमाल किए जाते हैं। जाहिर है, यह गांव के कुम्हारों के रोजगार पर ही नहीं, पारिस्थितिकीय संतुलन पर भी हमला है। प्लास्टिक के कप धरती की कोख में जहर का काम करेंगे और आनेवाली पीढ़ियां हमें कोसेगी, लेकिन इसकी चिंता चाय बेचने वाले ही करें, यह उम्मीद भी बेमानी है।
गांव में चुनाव का माहौल था। बुजुर्गों से लेकर नई पीढ़ी तक के लिए चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बने थे। जाति आधारित चिंता, और कुछ नहीं। क्षेत्र के विकास के लिए कुछ करनेवाले नेताओं से भी किसी को भी कुछ भी लेना-देना नहीं। नेता वही जीते, जो हमारी जाति का हो, यही सोच। भले ही पांच साल में कभी उसने चेहरा नहीं दिखाया हो। लोकतंत्र के इस यज्ञ में हमारी सहभागिता तो थी, लेकिन वजह और लक्ष्य बेहद तुच्छ। जाहिर है, चुनाव के नतीजे भले ही कुछ भी हों, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

Wednesday, January 11, 2012

यह कैसा स्नान

इसमें दो राय नहीं कि आस्था और श्रध्दा विधायक चिंतन के प्राण हैं और इनसे जीवन का उन्नयन होता है। आशा और विश्वास ही जीवन के आधार हैं लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम कूप-मंडूक बन जाएं और तर्क और विवेक को तिलांजलि देकर अंधश्रध्दा को बढ़ावा दें। दक्षिण कन्नड़ जिले में 'मडे स्नान' नामक अनुष्ठान का चौतरफा विरोध उचित ही कहा जाएगा। आखिर पत्तलों पर बचे हुए जूठे भोजन पर लोटने से त्वचा रोगों से मुक्ति कैसे संभव है?
 यह एक विडम्बना ही है कि एक ओर मनुष्य प्रकृति के गूढ़तम रहस्यों का उद्‌घाटन कर रहा है वहीं दूसरी ओर टोने-टोटके के सहारे उसकी चेतना को जड़ बना देने की कोशिशें भी जारी हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब परम्परा और श्रध्दा के नाम पर कुछ तथाकथित बुध्दिजीवी भी इनका समर्थन करते नजर आते हैं। किसी भी चीज पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेना और भेड़चाल में शामिल हो जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। इस तरह की प्रथाएं हमारे बौध्दिक दिवालिएपन की सबूत हैं और ऐसी घटनाएं हमें पूरी दुनिया में हंसी का पात्र बना देती हैं।
आश्चर्य है कि सरकार अभी तक इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है। यह अलग बात है कि सरकारी प्रतिबंध लगानेभर से ऐसी पोंगापंथी प्रथाओं से मुक्ति मिल जाएगी, ऐसा नहीं माना जा सकता। पूर्व में भी सरकार के निर्देश पर इस पर रोक लगाई गई थी लेकिन परिणाम आशानुरूप नहीं रहे। इसके लिए सामाजिक जागरूकता आवश्यक है जिसमें सभी को सहभागी बनना होगा। जिन लोगों का इससे हित जुड़ा है और जिनके अंहकार का पोषण होता है, उन्हें भी हठधर्मिता छोड़ जागरूकता फैलानी चाहिए। तभी सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया का स्वप्न साकार किया जा सकेगा।
मडे स्नानः कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले स्थित कुक्के सुब्रमण्य मंदिर का एक ऐसा अनुष्ठान है जो सदियों पुराना है और जिसमें सैकड़ों लोग केले के पत्ते पर ब्राह्मणों के भोजन कर लेने के बाद  उसी पत्ते पर लोटते हैं। राज्य के कई अन्य मंदिरों में भी यह अनुष्ठान किया जाता है।