Monday, October 17, 2016

फिर कोई ‘मुच्छड़’ नहीं होगा!

शत-शत नमन् और श्रध्दांजलि
‘बाबू’ के नहीं रहने की खबर व्हाट्सएप से मिली। जून में गांव गया था तो मन में एक चाह थी कि बाबू के दर्शन कर आऊं। पता नहीं, फिर भेंट हो न हो। बाबू के पांव छुए तो दिमाग पर थोड़ा सा जोर देने के बाद उन्होंने थोड़ी देर में ही पहचान लिया था। मुझे बहुत खुशी हुई थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस इलाके का हूं वहां पिता को भी सम्मान से ‘बाबू’ कहते हैं। मैं भी उन्हें ‘बाबू’ कहता था। सच तो यह है कि पिता जैसा प्यार यदि किसी से मिला तो उन्हीं से मिला इसलिए एक अदृश्य अपनापन जुड़ा रहा। जब उनके साथ रहता था तो कभी उन्होंने इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि मैं उनका सगा बेटा नहीं था और मैं भी सदा श्रध्दा से नतमस्तक रहा। निम्हांस में जब वे भर्ती थे तो मैंने उन्हें आम खिलाया था। मुझे जिस संतोष की अनुभूति हुई थी, वह शब्दातीत है। जिस आदमी ने हजारों बार खिलाया हो, उसे एक बार भी कुछ खिलाना मेरे लिए बेहद सौभाग्य का पल था। ‘बाबू’ की ढेर सारी आदतों में एक आदत यह भी थी कि वे जब भी कुछ खाते थे, दूसरों को खिलाकर ही खाते थे। ऐसी उदारता कितने लोगों में है?
गांव गया था तो पिछले कुछ सालों से अस्वस्थ चल रहे ‘बाबू’ चारपाई पर लेटे थे। हमेशा दूसरों की मदद की, अब दैनिक क्रियाओं के लिए भी दूसरे पर निर्भर थे। यह देखना बेहद दुखद था। यह उम्र की क्रूरता थी या क्या था, समझ नहीं पाया। कहते हैं, ईश्वर बड़ा दयालु होता है। तो फिर ‘बाबू’ के साथ यह अन्याय क्यों?यह प्रश्न मेरे ही मन में नहीं, उन्हें जाननेवाले बहुत सारे लोगों के मन में उठता था। बाबू अजातशत्रु थे। शायद ही उनकी किसी से कभी दुश्मनी हुई होगी। मारवाडिय़ों में वे ‘भैयाजी’ नाम से लोकप्रिय थे। मुझे नहीं लगता कि ऐसी इज्जत किसी और ने कमाई होगी। यूपी वाले उन्हें ‘मुच्छड़’ कहते थे। मूछें उनके चेहरे पर खूब फबती थीं। लम्बा-चौड़ा कद, बड़ी-बड़ी आंखें और चेहरे का तेज और रोब बढ़ाती मूंछें। मूंछें शान, सम्मान और गरिमा की प्रतीक हैं तो ‘बाबू’ से ज्यादा मूंछों का हकदार शायद ही कोई हो। एक बात तो तय है कि अपने समाज में शायद ही फिर कोई ‘मुच्छड़’ हो। बात सिर्फ मूंछों की नहीं, वह उदारता, वह धर्म परायणता, वह करुणा कोई कहां से लाएगा?
‘बाबू’ सभी के अपने थे। यूपी से कोई भी आता, उसके लिए दिल और दरवाजे दोनों खोल देते थे। कितने लोगों को शरण दी, कितने लोगों के सहारा बने। कितनों को नौकरी-धंधे पर लगाया, अंगुलियों पर गिनना संभव नहीं है। मेेरे परिवार के लिए तो मसीहा ही थे।
आज उनके नहीं रहने की खबर पर यादों का एक बवंडर सा उठ रहा है। खबरों की दुनिया में जीने की आदत पड़ गई है लेकिन यह महज खबर नहीं है। कयोंकि वे सिर्फ तारकेश्वर नाथ तिवारी, ‘मुच्छड़’, ‘भैयाजी’ ही नहीं, ‘बाबू’ भी थे। ‘बाबू’ घावों पर मलहम थे, भूख लगने पर रोटी थे और थे एक विशाल बटवृक्ष जिसकी छांव जीवनपर्यंत नहीं भूल पाऊंगा।
उस महान आत्मा को शत-शत नमन् और श्रध्दांजलि।

3 comments:

  1. भाई यह सब पढ़ने के बाद से अब आप के लिए मेरे दिल मे अगाध प्रेम बढ़ गया है जो कि इस तरह मैं बया नहीं कर सकता हूं

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  2. भाई यह सब पढ़ने के बाद से अब आप के लिए मेरे दिल मे अगाध प्रेम बढ़ गया है जो कि इस तरह मैं बया नहीं कर सकता हूं

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  3. भाई यह सब पढ़ने के बाद से अब आप के लिए मेरे दिल मे अगाध प्रेम बढ़ गया है जो कि इस तरह मैं बया नहीं कर सकता हूं

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