Monday, October 24, 2016

बुढिय़ामाई

आज पत्नी से बात करते हुए अचानक मुंह से निकला कि इस बार गांव चलेंगे तो बुढिय़ामाई के लिए कुछ ले चलेंगे।
बुढिय़ामाई! शब्द सहज ही मुंह से निकल गया था। अपनी आजी(दादी मां) को हम लोग बुढिय़ामाई कहते थे।
पत्नी ने भी वही शब्द दोहराया और मेरा मुंह देखने लगी।
बुढिय़ामाई! जिसे गए हुए दो साल होने को आ रहे हैं। आज भी अचानक याद आ जाती है। उसका चेहरा, सन की तरह बाल, लम्बी-लम्बी अंगुलियां, ममता से भरी आंखें और आशीर्वाद में गंगा-जमुना की तरह बढऩे का आशीर्वाद देती हुई।
बुढिय़ामाई १९ वर्ष की आयु में जो विधवा हुईं तो सुखों से जैसे जिंदगीभर के लिए नाता टूट गया और संघर्ष हमसफर बन गया। घोर गरीबी, हर कदम संघर्ष, हर सांस पीड़ा। लेकिन मजाल है कि चेहरे पर कभी दर्द छलका हो। हमेशा दर्द को पीती-परास्त करतीं रहीं। ९२-९३ वर्ष की उम्र में जब मौत हुई, तब तक न तो शुगर था और न ही बीपी।
पुरुष सत्तात्मक समाज में १९ वर्ष की विधवा, वह भी ब्राह्मण परिवार की। कितना कठिन रहा होगा जीवन। मैंने बचपन में होश संभाला तो पिता जी दूसरी शादी कर चुके थे और चाचा जी अलग दूसरे गांव में रहते थे। एक पैसे की भी आमदनी नहीं थी और खेती-बारी से इतना नहीं होता था कि गुजारा हो सके। हम लोगों को पता नहीं था कि अन्य बच्चों से हमारा भाग्य अलग है। हम भी दूसरे बच्चों की तरह खिलौनों, कपड़ों, खाने-पीने की वस्तुओं की जिद करते और दादी मां उस जिद को पूरा करती थीं। कैसे, कहां से, भगवान जानें। पिता, दादा या दादी सब कुछ बुढिय़ामाई ही थीं।
दादी मां किसी पुरुष की तरह खटती थीं। दिन हो या रात, अंधेरा हो या बरसात, कुछ भी उनके कदमों को रोक नहीं पाता था। गजब की जीवंतता थी। कहते हैं, जिनके दिल साफ होते हैं, वे दूसरों पर सहज ही विश्वास कर लेते हैं। बुढिय़ामाई ऐसी ही थीं। सब पर विश्वास करतीं थीं।
एक बात जो अब लोगों में दिखाई नहीं देती, वह यह कि बुढिय़ामाई सबसे ऐसे हुलस कर मिलती थीं, जैसे वह भगवान हों। बुढिय़ामाई के बारे में लिखने बैठता हूं तो दिल में कुछ उमडऩे-घुमडऩे सा लगता है। इतनी सारी यादें जीवंत हो उठती हैं और मन करता है, रोता रहूं।
बुढिय़ामाई बहुत बड़ी थीं। दुखों के पहाड़ के समक्ष अविचलित, अडिग, अपराजित। आदमी या औरत का कद ऐसे ही तो तय होता है, कि वह दुखों के सामने किस रूप में नजर आया। भरभराकर गिरा या चट्टान की तरह खड़ा रहा। जीवटता ही तो जिंदगी को वास्तविक आकार देती है। मेरा तो मानना है कि दुखों के बिना जीवन में बहुत बड़ी कमी रह जाती है। दुख जीवन का सबसे चटख, गाढ़ा रंग है, मांजता है, सजाता है, पकाता है जैसे धूप में पकी हुई बालियां या चूल्हे में पकती हुई रोटी।

2 comments:

  1. भाई आज आपका यह लेख पढने के बाद मेरे भी आंख के सामने जिन्हे हम सब मावा और आप बुढ़ियामाई कहते थे। उनकी याद आ गई लेकिन यह बात कहते हुए मुझे बहुत बुरा लगता है हैं कि मैं उन्हें बहुत सालो से नहीं देखा था एक बार मै हरिपुर गया था और वो वहाँ आई हुई थी और मैं भी उनके पास गया और वो मुझे देख कर रोने लगी थी और मैं भीतर से रोने लगा और पूछा कि आप कब आओगी तो वह डब्बू को गाली देने लगी थी और कहा कि वह अपने घर अब नहीं जायेंगी अगर मैं जाऊगी तो डबुआ मार डालेंगा। मेरा मावा से वही आखिरी बार मिला था और अब हम सब उन्हें सिर्फ याद कर सकते हैं लेकिन मिल नहीं ःःःःः मुझे वो प्यार से मुझे महजनवा कहा करती थी

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  2. भाई आज आपका यह लेख पढने के बाद मेरे भी आंख के सामने जिन्हे हम सब मावा और आप बुढ़ियामाई कहते थे। उनकी याद आ गई लेकिन यह बात कहते हुए मुझे बहुत बुरा लगता है हैं कि मैं उन्हें बहुत सालो से नहीं देखा था एक बार मै हरिपुर गया था और वो वहाँ आई हुई थी और मैं भी उनके पास गया और वो मुझे देख कर रोने लगी थी और मैं भीतर से रोने लगा और पूछा कि आप कब आओगी तो वह डब्बू को गाली देने लगी थी और कहा कि वह अपने घर अब नहीं जायेंगी अगर मैं जाऊगी तो डबुआ मार डालेंगा। मेरा मावा से वही आखिरी बार मिला था और अब हम सब उन्हें सिर्फ याद कर सकते हैं लेकिन मिल नहीं ःःःःः मुझे वो प्यार से मुझे महजनवा कहा करती थी

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