Saturday, December 3, 2011

ऋण लेकर 'घी पीने' का नतीजा

उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर नब्बे के दशक में जिस पूंजीवादी व्यवस्था के लिए पलक-पांवड़े बिछाए गए थे, उसके दुष्परिणाम अब भयावह रूप में सामने आने लगे हैं. जिस देश में आदमी नमक-रोटी खाकर चैन की नीद सोता था, वहीँ अब बेचैनी और तनाव के शिकंजे में कसमसाते लोगों की संख्या बढ़ रही है. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जहाँ चादर देखकर पांव पसारने की सीख  दी जाती थी थी वही ऋण लेकर घी पीने की मानसिकता को बढ़ावा दिया गया.जहाँ संयम जीवन का आधार था, वहीँ असीम भोग की लालसा की तृप्ति के साधन जुटाने की होड़ मच गई. बाज़ार ग्राहक का इंतजार करने के बजाय सीधे उसके घर में घुसने लगा, आसानी से उपलब्ध ढेर सारा ऋण लेकर. वही ऋण अब जानलेवा साबित हो रहा है.
देश में ऋण के बोझ से दबे कुल दस हजार से अधिक लोगों ने वर्ष 2010 में मौत को गले लगा लिया. जो ऋण हँसते-हंसते लिया गया था, बह करुण क्रंदन का कारण बन गया.अनंत इच्छाओं और सपनों को पूरा करने के लिए बिना सोचे-समझे ऋण का सहारा लेने का ही नतीजा है कि किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में लोग मौत के दरवाजे पर दस्तक देने लगे हैं।
बेंगलूरु में शुक्रवार को एक चिकित्सक परिवार के चार लोगों की आत्महत्या से एक बार फिर हमारे जीवन की दशा और दिशा पर सवालिया निशान लग गया है। आत्महत्या करने वाले उस वर्ग से हैं जिसे प्रबुध्द ही नहीं, जीवनदाता भी कहा जाता है। आखिर क्या कारण है कि जिन्हें जिंदगी से लोगों को जोड़ने की भूमिका निभानी चाहिए थी, वही दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। जाहिर है, सपनों और हकीकत के बीच तालमेल टूट रहा है जिसके कारण सपने लहुलुहान हैं। हम सुख व संतोष ऐसी जगह तलाश रहे हैं, जहां वह है ही नहीं। कहां गई वह खुशमिजाजी, वह जिंदादिली जो गरीबी में भी लोगों को खुशहाल रखती थी? कहाँ खो गए वो जीवन मूल्य जो कठिन परिस्थितियों में भी आशा और विश्वाश से हमें जोड़े रखते थे.आखिर क्यों बाहर से समृध्द दिखने के बावजूद हम भीतर से दीन- हीन और दरिद्र होते जा रहे हैं.दिखावे और झूठी शान के पीछे भागते समय हमें यह सोचना ही होगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। जरूरत और लोभ के बीच का अंतर हमें समझना ही होगा और यह भी कि सम्पन्नता व सफलता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण सार्थकता है।

16 comments:

  1. चादर से ज्यादा पैर पसारने की मानसिकता कई बार ले ही डूबती है ........लोन संस्कृति ने सुविधाएँ जुटाने की आदतें डाल दीं हैं ...... चक्रव्यूह है यह भी एक

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  2. बंगलुरु का यह रंग आँखों में नहीं उतर पा रहा है, यह घटना बहुतों को सोचने पर विवश करेगी।

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  3. विकास के साथ ही विनाश आता है....अगर समझदारी से काम न लिया तो !

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  4. पाश्चात्य -भोग- विलास की जीवन जीने की आकांक्षा मनुष्य को यह सब करने पर मजबूर कर रही है ! पांव से ज्यादा पैर पसारने के यही परिणाम होते है ! सुन्दर दृष्टि

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  5. संतोष जी,
    आपके लेख का सच बहुत ही तीखा है ! वर्तमान जीवन शैली, अतृप्त लालसा और दिखावे की होड़ सारे दुखों के कारण हैं !
    आपका प्रभावपूर्ण लेख सोचने पर मज़बूर करता है !
    आभार !

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  6. .दिखावे और झूठी शान के पीछे भागते समय हमें यह सोचना ही होगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।
    Bilkul sahee kah rahe hain aap!

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  7. जितनी रफ़्तार से दिखावा बढ़ता जा रहा है ... उतनी रफ़्तार से निराशा भी बड रही है ... देखा देखी में अपने से ज्यादा दिखने की चाह खतरनाक मोड ले रही है ...

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  8. अपने शाश्वत जीवन मूल्यों और सुनहरी सीखों से सीख न लेने का यही परिणाम है -अब भी चेतें लोग ....अच्छा लिखा है आपने !

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  9. आज का कटु सत्य दिखा दिया आपने ....

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  10. सपनों और हकीकत के बीच जो भी हो रहा है उसे अच्छा तो कतई नहीं कहा जा सकता है ..

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  11. "हम सुख व संतोष ऐसी जगह तलाश रहे हैं, जहां वह है ही नहीं।"-
    ----एक दम सत्य कहा सन्तोष जी ....अपने शाश्वत मूल्यों व इतिहास को भुलाकर दिखावे के पीछे भागना ही इस स्थिति का परिणाम है....सुन्दर व सत्य आलेख...

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  12. चैन तो इस या उस वाद के चलते नहीं, वह गया है आदमी के हाही पने से और कम से कम काम करने पर ज्यादा से ज्यादा पाने की चाह से।

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  13. अनंत इच्छाओं और सपनों को पूरा करने के लिए बिना सोचे-समझे ऋण का सहारा लेने का ही नतीजा है कि किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में लोग मौत के दरवाजे पर दस्तक देने लगे हैं।

    bahut sunder lekh likha hai, sach log ichhaon ki poorti ke liye rin le lete hain aur fir fans jaate hain us chakravyooh mein jo chain chheen leta hai.

    shubhkamnayen.

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  14. bahut hi vicharneey aur prabhavi lekh..aabhar

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  15. विचारणीय और सार्थक आलेख...

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