उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के मेरे गांव की रामलीला आज सम्पन्न हुई। रामलीला के बाद पास ही एक छोटे से मैदान में मेला लगता है। मे ले से लौटे एक मित्र से दूरभाष के जरिए मेले के माहौल की जानकारी मिली। मन बचपन की गलियों में खो सा गया। याद आया, कैसे म हीने पहले से मेले की तैयारियां होने लगती थीं। मेला मैदान में लगने से पहले ही सैकड़ों बार हमारे मन में लग जाता था. दिन गिने जाते थे. और फिर जिस दिन मेला वाला दिन होता, उस दिन सुबह अलग अंदाज में होती थी.मुश्किल से दोपहर होती. मेला स्थल पर पहुँचने का जो उल्लास था, उसके क्या कहने? दूर से विचित्र सी मिली-जुली आवाजें कानो में पड़ती थीं और कदमों में जैसे पंख लग जाते. आ जाओ जलेबी के खाने वाले, वारी गुलाब वाला है, ऐसा गट्टा कहीं नहीं मिलेगा, जैसी आवाजें.
कई दिन पहले से बात-बात पर मां से पूछता था, मेला देखने के लिए इस बार पांच रूपए मिलेंगे ना? मां ने कभी ना कहा हो याद नहीं आता लेकिन आ प से क्या छुपाऊं, पूरे पांच रूप कभी नहीं मिले। यह अलग बात है कि 1970 के दशक के उन दिनों में दो रूपए भी बहुत थे.मेले से लौटते समय बादशाह होने जैसी खुशी मिलती थी। जेब भरी रहती थी और हाथ भी. अन्य साथियों की जेबों में भी कोई बहुत ज्यादा नहीं होता था. सबके सुख और दुःख भी समान हुआ करते थे. पिपिहरी बजाते हुए लौटते थे. महुए के पत्तों से बने दोनों में गरम-गरम चोटहिया जलेबी लिए हुए. चोटहिया जलेबी गुड के सीरे से बनती थी और कसम से आज के किसी पंचतारा होटल में भी वैसा स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ शायद ही मिले. हाँ एक बार ऐसा हुआ क़ि आज तक भूल नहीं पाया.पडोसी चाचा के साथ मेला देखने गया. वहां एक आदमी 8 रुपये किलो बर्फी बेच रहा था. चाचा ने ख़रीदा तो मैंने भी खरीद लिया. पास में पूरे 2 रुपये थे, पूरे का खरीद लिया. दोने में लेकर घर पहुंचा. नारा लगाया क़ि आओ सब लोग भर पेट बर्फी खाओ. माँ ने चखते ही कहा क़ि यह बर्फी नहीं, शक्कर मिला गेहूं का आटा था.मन ऐसा तिक्त हुआ क़ि क्या कहें.आज भी मैं और चाचा याद करके खूब हंसते हैं.
मित्र ने बताया क़ि अब चोटहिया जलेबी की एकाध दुकान ही आती है और गुड के सीरे में डूबी जलेबियाँ नहीं मिलती. बच्चे पिपहरी आदि के बजाय काग वाली बन्दूक पसंद करते हैं, और यह भी क़ि मेला धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है. कुछ चाट के ठेले, कुछ मिठाई क़ी दुकानें,कुछ बिसारती के सामान.बस.
उस समय घर क़ी जरूरत क़ी अधिकांश चींजे मेले से ही खरीदी जाती थी. यही कारण है कि बुजुर्ग और महिलाएं भी मेले का इंतजार करते थे. टिकुली, शीशा, फीता, लाली, महावर मेले में खरीदे जाते थे. दूर-दूर से व्यापारी आते. अनाज भी बिकता था, दलहन भी.
पता नहीं अब मेले से लौटते समय बच्चों को कैसा लगता होगा? वह आह्लाद अब वे कहाँ पाते होंगे? सच कहूँ तो वैसा आह्लाद अब हमारे जीवन में भी कहाँ हैं? कुछ भी, कितना भी मिल जाए कम और फीका ही लगता है.
मित्र ने बताया क़ि अब चोटहिया जलेबी की एकाध दुकान ही आती है और गुड के सीरे में डूबी जलेबियाँ नहीं मिलती. बच्चे पिपहरी आदि के बजाय काग वाली बन्दूक पसंद करते हैं, और यह भी क़ि मेला धीरे धीरे सिकुड़ता जा रहा है. कुछ चाट के ठेले, कुछ मिठाई क़ी दुकानें,कुछ बिसारती के सामान.बस.
उस समय घर क़ी जरूरत क़ी अधिकांश चींजे मेले से ही खरीदी जाती थी. यही कारण है कि बुजुर्ग और महिलाएं भी मेले का इंतजार करते थे. टिकुली, शीशा, फीता, लाली, महावर मेले में खरीदे जाते थे. दूर-दूर से व्यापारी आते. अनाज भी बिकता था, दलहन भी.
पता नहीं अब मेले से लौटते समय बच्चों को कैसा लगता होगा? वह आह्लाद अब वे कहाँ पाते होंगे? सच कहूँ तो वैसा आह्लाद अब हमारे जीवन में भी कहाँ हैं? कुछ भी, कितना भी मिल जाए कम और फीका ही लगता है.
यादों को कुरेद कर रख दिया पाण्डे जी आपने !मेले की पिपिहरियाँ और चोटहिया जलेबी -अब मते पूछिये कुछौ
ReplyDeleteपांडे जी, कौन से ज़माने में ले गए हमको ....... पुराने दिन याद आ गए.......
ReplyDeleteबढिया..
“दीपक बाबा की बक बक”
प्यार आजकल........ Love Today.
समय के साथ काफी कुछ बदल भी जाता है और छूट भी जाता है ।आपकी पोस्ट पढ कर अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आरहीं हैं --
ReplyDeleteवे भी दिन थे जब पैदल ही जाते थे ।
मुँह को बाँधे मिर्च पराँठे खाते थे ।
हर दुकान किस तरह बुलाती थी हमको ,
कैसे हर हसरत को रोक दबाते थे ।
अब पैसा है , फुरसत है सुविधाएं भी हैं ,
पर ,मेले में वो बात नही है जाने क्यूँ
दिल में वो जजबात नही हैं जाने क्यूँ ।