नेता नहीं रहे
कर्नाटक की राजनीति में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। नेताओं ने एक-दूसरे को क्या-क्या नहीं कहा लेकिन यह कभी नहीं कहा. राज्य की दो बड़ी पार्टियाँ एक दूसरे के लिए कह रही हैं की उनके पास नेता ही नहीं हैं. हे भगवान! तो यह लोग नेता नहीं हैं. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष आर वि देशपांडे कह रहे हैं कि भाजपा में नेता नहीं हैं इसलिए हमारी पार्टी से खींचे जा रहे हैं. भाजपा कह रही है कि उनके पास नेता नहीं हैं इसीलिए लोग खुद-ब-खुद हमारी और आ रहे हैं. वैसे, यह बेहद गंभीर बात है. यह लोग यदि नेता नहीं हैं तो क्या हैं? और यदि नेता हैं तो इन्हें नेता मान लेने में क्या हर्ज़ है? शक्ल-ओ-सूरत और कारगुजारियों से तो शत-प्रतिशत नेता लगते हैं. वैसे भी देश में नेताओं की परिभाषा को लेकर कोई दो राय नहीं. लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस ने नेताओं की छवि इतनी स्पष्ट कर दी है कि संदेह कि गुंजाईश ही नहीं. चूंकि देश में आदमी ज्यादा और नेता कम हैं और आदमी को नेता और नेता को आदमी समझने कि चूक हो सकती है, इसीलिए दूर दृष्टि वाले कांग्रेस्सियों ने पक्का इरादा किया और कड़ी मेहनत से नेताओं कि पहचान बना दी. लगता है, भाजपा कांग्रेस कि इस वर्षों कि मेहनत से मिली सफलता को पचा नहीं पा रही है. रहा सवाल भाजपा का, तो उसके पास भी नेता हैं या नहीं तय करना पचडे का काम है. तभी तो कभी अनंत (बेंगलूरू दक्षिण से सांसद ) येद्दियुरप्पा को नेता बता देते हैं और कभी येद्दियुरप्पा अनंत को.गोया कि हर कोई दूसरे कि तरफ ही उंगली उठाना चाहता है,जो कांग्रेसी भाजपा में जा रहे हैं उनका क्या? यदि यह नेता नहीं हैं तो भाजपा इनको अपनी और मिलाने के लिए बेताब क्यों है? पार्टी छोड़ रहे कांग्रेसी नेताओं को कसैखाने कि और बढ़ रहे बूढे बैल कहकर पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने कम से कम इतना तो साबित कर ही दिया है कि उन्हें बूढे बैलों कि समझ है. धरतीपुत्र होने के नाते उनके इस सामन्य ज्ञान पर शक नहीं किया जाना चाहिए.वैसे, किसी के नेता न रहने या किसी नेता के न रहने पर देश अब दुखी नहीं होता. नेता न रहने का संकट किसी पार्टी के समक्ष नहीं, देश के सामने है. नेता ही होते तो क्या यह दिन देखने पड़ते.
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