Thursday, November 29, 2012

भीतर मैं-बाहर चाँद

भीतर मैं
आय-व्यय, पाने -खोने की चिंता के साथ
महानगरीय आपाधापी और तनावों से घिरा
करवट बदल रहा था
बाहर चाँद
पूर्णिमा की ज्योत्स्ना बिखराए
मुस्कुराता हुआ छत पे टहल रहा था .


(चित्र  photobucket.com से साभार।)

5 comments:

  1. उसने सारा जगत देखा है तभी सदा मुस्कराता है, हम अपने में ही गुने धुने रहते हैं..

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  2. आपकी क्षणिका में आज के जीवन की सच्चाई समाहित है !
    आभार !

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति आभार आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध [कानूनी ज्ञान ]पर और [कौशल ]पर .शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता .

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  4. ये चांद भी है न जो..मत पूछो मजे से टहलता रहता है ..यहां जमीन पर हमारी आफत आई होती है औऱ वो उपर मजे से घटता-बढ़ता रहता है

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