यदि आपकी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई हो या आपकी जड़ किसी गाँव में हो तो संभव है कि आपको पता हो कि फाल्गुन आ गया है. अन्यथा, फाल्गुन का आना कोई क्रिकेट मैच तो है नहीं कि उसकी पल-पल क़ी खबर आप तक पहुँचाने के लिए प्रचार माध्यम जी-जान से जुटे हों. फाल्गुन का आना कोई रोचक या रोमांचक घटनाक्रम भी नहीं कि सबसे तेज और आगे होने का दावा करनेवाला मीडिया उसके हर पहलू को उघाड़े. फाल्गुन के आने का हल्ला मचाकर बाज़ार को भी कोई फायदा नहीं हो सकता. ऐसे में बेंगलुरु जैसी हाई टेक सिटी में रहनेवाले किसी व्यक्ति से यह उम्मीद करना कि उसे पता हो कि फाल्गुन आ गया है, ज्यादती ही तो है.
बेंगलुरु दिन दूनी रात चौगुनी गति से फ़ैल रहा है. अब यहाँ न तो आमों के बौर से फूटती मादक गंध बची है, न ही अमराई में कूकती कोयल. सरसों की पीली चुनर पहने इठलाती, हवा के हिंडोले पर झूलती, लोटपोट होती गेहूं की बालियाँ भी नहीं हैं.अपने ही रस के भार से बद्द से चू पड़नेवाला महुआ भी तो नहीं है. ऐसे में फाल्गुन के आने का पता चले भी तो कैसे?इन सभी की नामौजूदगी व् मेट्रो रेल के लिए जगह बनाने की मजबूरी के बावजूद बेंगलुरु किसी महानगर की तुलना में प्राकृतिक रूप से ज्यादा समृद्ध है. यहाँ सैकड़ों किस्म के फूल और विशाल वृक्ष हैं जो बेंगलुरु वासियों को प्रकृति से जोड़े रखने की एकतरफा कोशिश में लगे हुए हैं. आदमी की उदासीनता और भयावह तटस्थता के बावजूद ये हार मानने को तैयार नहीं हैं और कंक्रीट के जंगल, औद्योगिक कचरे और प्रदूषण से लड़ते हुए फाल्गुन के स्वागत में बिछे जा रहे है.
तेज रफ़्तार से, नाक की सीध में आगे बढ़ने की बदहवासी और ढेर सारा पैसा पाने के लोभ में लगे हम यदि फूलों के रंग, रूप, रस और गंध को नहीं देख और महसूस कर पा रहे हैं, हवा की फुसफुसाहट के साथ बजती पत्तों की पाजेब नहीं सुन पा रहे हैं तो इसमें फाल्गुन का क्या दोष?
दरअसल, फाल्गुन कोई महीना मात्र नहीं है, फाल्गुन तो प्रकृति में चल रहे महारास में शामिल होने, उसके साथ एकात्म भाव से जुड़ने और मस्त होने का निमंत्रण है, जो प्रकृति हमें हर साल देती है. पाश्चत्य संस्कृति के अन्धानुकरण से उत्पन्न मानसिक विपन्नता में भौतिक सुख समृध्दी को ही सब कुछ मानकर उसके पीछे निरंतर भागने के कारण उस आनंद और उल्लास से हमारा नाता टूटता जा रहा है, जो हमारा स्वभाव है. हम इतने स्वार्थी और आत्म केन्द्रित होते जा रहे है क़ि दूसरे की मौजूदगी हमें अपनी निजता व् विकास में बाधा लगती है.सह अस्तित्व व् समन्वय के सूत्र हमारे जीवन से गायब हैं.घर परिवार से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक में तरह-तरह के आयोजन हैं लेकिन इनमे किसी संगति या संगीत का नहीं, महज शोर-शराबे का आभास होता है.
कहा गया है, फाल्गुन में बाबा देवर लागे.एकल परिवारों के प्रचलन के कारण बाबा तो उपेक्षित और तिरस्कृत हैं ही, देवर और भाभी के बीच भी इतनी दूरी पैदा हो गई है क़ि हंसी-ठिठोली क़ी कौन कहे, सहज, सामान्य अपनत्व भी गायब होता जा रहा है. तरह-तरह क़ी मशीनों के बीच जीते-जीते मनुष्य भी एक मशीन बनता जा रहा है.संवेदना के आभाव में अंतर्वीणा बजे तो कैसे? बेशुमार महत्वाकांक्षाओं के शिकार आधुनिक मनुष्य का जीवन यदि बदरंग है तो फाल्गुन क़ी बसंती बयार या रंग गुलाल क्या करेंगे?इच्छाओं और स्वार्थ के अनंत विस्तार के वर्तमान दौर में जबकि उदासी, खिन्नता, नीरसता और तनाव हमारे जीवन को बेढंगा, बदरंग और बेसुरा बना रहे हैं, यदि हमने फाल्गुन को ठीक से नहीं पहचाना तो वह दिन दूर नहीं जब हम स्वयं ही स्वयं को नहीं पहचान पाएंगे. उत्सव हमारा धर्म है और आनंद स्वभाव. फाल्गुन हमें हमारी याद दिलाने आया है.
इच्छाओं और स्वार्थ के अनंत विस्तार के वर्तमान दौर में जबकि उदासी, खिन्नता, नीरसता और तनाव हमारे जीवन को बेढंगा, बदरंग और बेसुरा बना रहे हैं, यदि हमने फाल्गुन को ठीक से नहीं पहचाना तो वह दिन दूर नहीं जब हम स्वयं ही स्वयं को नहीं पहचान पाएंगे. उत्सव हमारा धर्म है और आनंद स्वभाव. फाल्गुन हमें हमारी याद दिलाने आया है.
ReplyDeletePooree tarah se sahmat hun!Afsos nisarg ke saath badhti dooree rishton me bhee samaa rahee hai..
फाल्गुन आ नहीं गया है, फाल्गुन छा गया है।
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ब्लॉगवाणी: ब्लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।
अब यहाँ न तो आमों के बौर से फूटती मादक गंध बची है, न ही अमराई में कूकती कोयल. सरसों की पीली चुनर पहने इठलाती, हवा के हिंडोले पर झूलती, लोटपोट होती गेहूं की बालियाँ भी नहीं हैं.अपने ही रस के भार से बद्द से चू पड़नेवाला महुआ भी तो नहीं है. ऐसे में फाल्गुन के आने का पता चले भी तो कैसे?
ReplyDeleteबहुत अच्छा शब्द संयोजन
एक ही लेख में बहुत कुछ भर दिया है
फागुन की छटा
होली का त्योहार
गुलाल
क्रिकेट मैच
महुआ
सबकी महक
विशाल वृक्ष
सैकड़ों किसम के फूल
मेट्रोपोलिटन सिटीज़ का जीवन
आम के बौर
कोयल की चँहक
फूलो की महक
यहाँ तक कि..
होली की हँसी-ठिठोली भी.............
बहुत अच्छा लगा यह लेख।
हाँ ये अमलतास का चित्र भी अछा है
अभी से फूलना शुरू करेगा
और जेठ की दुपहरों तक फूलेगा।
शहरी जीवन में ऋतु व उत्सव की महक खो जाती है।
ReplyDeletekahte hain fagun to budhon ko bhi apni chapet men le leta hai,isliye is samay atirikt-satarkata ki zaroorat hai !
ReplyDelete@ shama
ReplyDeleteशमा जी
टिपण्णी के आभार.
@जाकिर अली रजनीश.
फागुन को छा जाने दीजिये हुज़ूर.बात दिल की होठों पे आ जाने दीजिये.
@वृक्षारोपण- एक कदम प्रकृति की ओर
धन्यवाद. ऐसी प्रतिक्रिया से और भी लिखने का मन करता है.
@ प्रवीण पाण्डेय
सही है.इसी महक को बचाना जरूरी है.
@ संतोष त्रिवेदी
फागुन के चपेट से बचने की कोशिश न कीजिये.
मक़सूद है उस मय से दिल ही में जो खिचती है. धन्यवाद
प्रिय बंधुवर संतोष पाण्डेय जी
ReplyDeleteसस्नेहाभिवादन !
सच कहते हैं आप -
यदि हमने फाल्गुन को ठीक से नहीं पहचाना तो वह दिन दूर नहीं जब हम स्वयं ही स्वयं को नहीं पहचान पाएंगे
कुछ गर्माहट , कुछ आर्द्रता तो बची ही रहनी चाहिए …
फिर भी ज़्यादा चिंता की बात नहीं … आप हम हैं न !
:)
प्रणय दिवस सप्ताह भर पहले था … कोई बात नहीं … बसंत ॠतु तो अभी बहुत शेष है ।
मंगलकामना का अवसर क्यों चूकें ?
♥ प्रणय दिवस की मंगलकामनाएं !♥
♥ प्यारो न्यारो ये बसंत है !♥
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
क्या याद दिलवाई आपने फागुन की...आभार.
ReplyDeleteबहुत अच्छा शब्द संयोजन
ReplyDeleteमेरी शिक्षा हिंदी मध्यम से ही हुई है.... और जड़ें भी गाँव से ही जुडी हैं .......... :)
ReplyDeleteफागुन का भाव और प्रकृति का रंग जो आपने वर्णित किया है उसे अच्छे से समझ सकती हूँ...... सुंदर पोस्ट ...
कमाल के चित्र के साथ ...
@
ReplyDeleteराजेंद्र स्वर्णकार
भाई राजेंद्र जी,
नमस्कार.
सहमत हूँ.कुछ गर्माहट , कुछ आर्द्रता बचाने का प्रयास जारी रहे.
@उड़न तश्तरी
समीरजी
मुझे नहीं लगता आप जैसा रसिक फागुन को भूल सकता है.बहरहाल, आभार.
@संजयजी
धन्यवाद.
मक़सूद है....गुलाम अली की बढ़िया ग़ज़ल याद करा दी.....धन्यवाद !
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