Monday, January 31, 2011

देश पिया के जाना है.


क्या खोना, क्या पाना है
बस, मन को बहलाना है.
 
चलने का है नाम जिंदगी
और मौत, रुक जाना है.
 
कंकड़-पत्थर खोजे बाहर ,
भीतर पड़ा खजाना है.
 
हीरे मोती, महल-अटारी 
यहीं, धरा रह जाना है.

बन के दुल्हन, ओढ़ चुनरिया
देश पिया के जाना है.
 
(प्रवीण जी को समर्पित. उनका  लेख चोला माटी के हे रे पढने के बाद भावभूमि पर उक्त पंक्तियाँ अंकुरित हुई.)

5 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर, देश पिया तो वही है, चुनरिया शान्ति की है।

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  2. कविता अच्छी लगी, प्रवीण पाण्डेय जी के ब्लॉग को मैंने भी पढ़ा था और निस्संदेह उससे प्रभावित ये कविता भी काफी प्रभावी है| :)
    .
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    .
    shilpa

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  3. शिल्पाजी
    ब्लॉग के अवलोकन और टिपण्णी के लिए आभारी हूँ .

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  4. संतोष पांडेय जी
    सादर अभिवादन !

    बहुत ख़ूबसूरत रचनाकार छुपा है आपके अंदर
    क्या खोना, क्या पाना है
    बस, मन को बहलाना है

    पूरी रचना में दर्शन झलक रहा है …
    वाह वाह !
    अगली बार आपकी और पुरानी पोस्ट्स देखनी पड़ेगी :)

    शुभकामनाएं !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  5. पांडे जी
    'देश पिया के जाना है' गज़ल पढ़ी
    बहुत अच्छी लगी
    एकदम निर्गुनिया रंग है

    रमेश जोशी

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