Wednesday, January 26, 2011

वही परमपद पाएगा!

वही परमपद पाएगा!  
पंडित भीमसेन जोशी के  निधन से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय  संगीत के एक युग का अवसान हो गया। संगीत उनके लिए एक जिद थी, एक जुनून था। संगीत उनकी  सांसों में बजता था, लहू में दौड़ता था। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि  वे भारतीय संगीत को  समृध्द करने के  लिए ही पैदा हुए थे।
कर्नाटक के  गदग में एक ब्राह्मण परिवार में 4 फरवरी, 1922 को  जन्मे भीमसेन जोशी के पिता गुरुराज जोशी स्थानीय हाई स्कूल के  हेडमास्टर तथा कन्नड़, अंग्रेजी एवं संस्कृत के विद्वान थे। उनकी  इच्छा थी कि  पुत्र डॉक्टर बने। लेकिन बचपन में ही रेडियो सुनकर वे ठिठक  जाते थे। पिता की इच्छा व संगीत के  आकर्षण के बीच आखिरकार संगीत जीता। मात्र ग्यारह साल की  उम्र में जोशी घर से भाग गए। एक  ही बात दिल व दिमाग में थी, संगीत सीखना है। कहां जाएं.. कुछ भी पता नहीं था। बीजापुर में भटकते रहे। क़िसी ने सलाह दी क़ि  ग्वालियर जाओ। ग्वालियर जाने के  लिए रेल में सवार हो गए। टिकट नहीं था तो क्या हुआ, गले में सुर थे। टिकट निरीक्षक  भी गायन से मुग्ध हो गया। रेडियो पर सुने भजन जोशी गाते रहे और रेल भविष्य के एक  दिग्गज संगीतकार को लेकर ग्वालियर की ओर बढ़ती रही। ग्वालियर के  बाद लखनऊ और रामपुर में भी उन्होंने गायन की शिक्षा ली। गुरु की  तलाश में कुदगौल पहुंचे। सवाई गंधर्व के  पैरों में मत्था टेका। उन दिनों गुरु शिष्य को खूब परखने और कसौटी पर कसने के बाद ही शिष्य बनाते थे। जोशी को यह परीक्षा मंजूर थी लेकिन संगीत के बिना जीवन नहीं। पिता को खबर हुई तो देखने पहुंचे और पुत्र को पानी भरते देख आंखें भर आईं। जोशी गुनगुना रहे थे, जैसे वे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ
कार्य र रहे हों। उन्होंने मैं यहां खुश हूं, हकर पिता ·को लौटा दिया।
बताया जाता है क़ि डेढ़ साल के बाद गुरु ने जोशी क़ी पहली
क्षा ली और पहली बार गायन सुनर ही गले लगा लिया। गुरु-शिष्य क़ी परम्परा में ए नायाब हीरा निखरता रहा, कालांतर में जिसने अपनी चम से पूरी दुनिया को मंत्रमुग्ध किया  और संगीत जगत का  कोहिनूर बना।
हिन्दुस्तानी संगीत क़ी  समृद्धि में जोशी का योगदान बेजोड़ है। उन्होंने खयाल गायक़ी क़ी  कला को बुलंदियों पर पहुंचाया। सुगम संगीत व उप शाश्त्रीय गायन से शुरू हुआ सफर रागों क़ी  शुध्दता को साधते हुए, मुरक़ीयों, तानों और मीड़ क़ी  बारीकियां सीखते हुए सिध्दावस्था त
पहुंचा। गाते समय जोशी किसी और ही दुनिया में खो जाते थे लेकिन संगीत क़ी  गहरी समझ और सांसों पर अद्भुत नियंत्रण के कारण भी सुर इधर से उधर नहीं हुए। उनके  गायन में क्या गजब क़ी  सम्प्रेषणीयता थी क़ि शास्त्रीय संगीत क़ी समझ नहीं रखने वाले श्रोता भी एक अलग ही भावलो में पहुंच जाते थे।
हिन्दी फिल्म ‘भैरवी’ व ‘बसंत बहार’ में भी उनक़ी  सुर साधना का उपयोग हुआ। मराठी भक्ति संगीत व
र्नाट के  भाव गीतों के  माध्यम से जोशी क़ी आवाज दोनों ही राज्यों के घर-घर में गूंजती और मिठास घोलती रही। ‘भाग्य दा लक्ष्मी बारम्मा’ जैसे उनके  अनेक  भक्ति गीत हैं, जो संगीत जगत क़ी धरोहर हैं। उनक़ी  आवाज में गन्ने जैसे मिठास थी, जो पोर-दर-पोर बढ़ती ही रही। किराना घराने क़ी परम्परा के संवाहक  जोशी उन गिने-चुने कलाकारों  में शामिल रहे जिन्हें महाराष्ट्र व र्नाट में समान सम्मान मिला। वे सचमुच और सच्चे अर्थों में ‘भारतरत्न’ थे। उनके  निधन से पैदा हुआ शून्य कभी  भरा नहीं जा सकेगा । संगीत के जगत में उन्होंने निश्चित ही उस ‘परमपद’ को  पा लिया जिसे पाने का  संदेश वे इस भजन के माध्यम से देते रहे- ‘जो भजे हरि को  सदा वही परमपद पाएगा’।
(चित्र http://www.newquestindia.com/ से साभार )

4 comments:

  1. bhimsen joshi ji ko haardik shriddhanjali !
    unke prati aapki bhavna stutya hai .

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  2. सच कहा आपने, वह रिक्त स्थान न भर पायेगा।

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  3. रोचक संसमरण
    पढकर अच्छा लगा।
    प्रवीण पांडेजी के ब्लॉग पर आप के बारे में जाना।
    बडी खुशी हुई यहाँ आकर.
    आते रहेंगे
    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ
    बेंगळूरु

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  4. वाक़ई पंडित भीमसेन जोशी के निधन से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक युग का अवसान हो गया है... दिवंगत आत्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि...

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