और एक दिन निकल गया आखिर
हाल माज़ी में ढल गया आखिर।
एक चुल्लू मिला था आबे हयात।
उंगलियों से फिसल गया आखिर।
अहमद हुसैन मोहमद हुसैन की आवाज गूंज रही है।
सोमवार की शाम।
साप्ताहिक अवकाश होने के कारण सोमवार मेरे लिए रविवार की तरह होता है। पत्रकारिता की नौकरी में सबसे बड़ी दुर्घटना यह होती है कि आप सुबह व शाम से महरूम कर दिए जाते हैं। देर रात (दो बजे तक) घर पहुंचने पर मुश्किल से आंख लगती है अौर सुबह दस बजे के पहले नहीं खुलती।
शाम को जब सूर्यदेव संध्या की मांग में सिंदूर भर रहे होते हैं मैं खबरों से दो-चार होता रहता हूं। खबरें भी ऐसी जो आप पर हमला करती हैं, लहुलुहान करती हैं।
उत्तराखंड में मूढ़ राजनेताओं ने प्रकृति को ऐसा नोचा-खसोटा कि सब कुछ ढह और बह रहा है और इसके बाद वहां पर बलात्कार हो रहे हैं।
वाह मेरे देश। पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता की दूरी पलभर में खत्म।
राजनेताओं में होड़ मची है .
बेशर्मी की हदें छोटी पड़ रही हैं। झंडिया दिखाई जा रही हैं, राहत सामग्री रवाना हो रही है। ज्यादा से ज्यादा श्रेय लूटने की कुत्सित कोशिश। कौन आगे, कौन पीछे की बहस। मोदी क्यों आए और राहुल बाबा कहां हैं? जैसे सवालों पर लोग चर्चा करके अपने प्रवक्ता और बुद्धिजीवी होने का झंडा गाड़ रहे हैं।
बाढ़ पीडि़तों की लाशों पर लोकसभा चुनाव की तैयारियां हो रही हैं।
और खबर बनाने के अलावा, उसकी सही प्लेसिंग के अलावा आप कुछ नहीं कर पाते।
आपको नहीं लगता कि दुनिया लगातार बदतर व बदसूरत होती जा रही है?
............................................
बहरहाल, चूंकि सोमवार है और दुर्लभ शाम मिली है मैं उसका पूरा उपयोग करना चाहता हूं। खयाल आता है कि एक मित्र से मिला जाए, फिर सोचता हूं कि जिसने महीनों से खबर तक नहीं ली, जिससे हर बार हाल-चाल जानने की पहल मैंने ही की, उसे क्यों तकलीफ दी जाए।
पत्नी गांव से लाई गई लाई(भूजा) गर्म करके दे गई है।
स्पीकर की आवाज बढ़ा देता हूं।
और एक दिन निकल गया आखिर।
हाल माज़ी में ढल गया आखिर।
हाल माज़ी में ढल गया आखिर।
एक चुल्लू मिला था आबे हयात।
उंगलियों से फिसल गया आखिर।
अहमद हुसैन मोहमद हुसैन की आवाज गूंज रही है।
सोमवार की शाम।
साप्ताहिक अवकाश होने के कारण सोमवार मेरे लिए रविवार की तरह होता है। पत्रकारिता की नौकरी में सबसे बड़ी दुर्घटना यह होती है कि आप सुबह व शाम से महरूम कर दिए जाते हैं। देर रात (दो बजे तक) घर पहुंचने पर मुश्किल से आंख लगती है अौर सुबह दस बजे के पहले नहीं खुलती।
शाम को जब सूर्यदेव संध्या की मांग में सिंदूर भर रहे होते हैं मैं खबरों से दो-चार होता रहता हूं। खबरें भी ऐसी जो आप पर हमला करती हैं, लहुलुहान करती हैं।
उत्तराखंड में मूढ़ राजनेताओं ने प्रकृति को ऐसा नोचा-खसोटा कि सब कुछ ढह और बह रहा है और इसके बाद वहां पर बलात्कार हो रहे हैं।
वाह मेरे देश। पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता की दूरी पलभर में खत्म।
राजनेताओं में होड़ मची है .
बेशर्मी की हदें छोटी पड़ रही हैं। झंडिया दिखाई जा रही हैं, राहत सामग्री रवाना हो रही है। ज्यादा से ज्यादा श्रेय लूटने की कुत्सित कोशिश। कौन आगे, कौन पीछे की बहस। मोदी क्यों आए और राहुल बाबा कहां हैं? जैसे सवालों पर लोग चर्चा करके अपने प्रवक्ता और बुद्धिजीवी होने का झंडा गाड़ रहे हैं।
बाढ़ पीडि़तों की लाशों पर लोकसभा चुनाव की तैयारियां हो रही हैं।
और खबर बनाने के अलावा, उसकी सही प्लेसिंग के अलावा आप कुछ नहीं कर पाते।
आपको नहीं लगता कि दुनिया लगातार बदतर व बदसूरत होती जा रही है?
............................................
बहरहाल, चूंकि सोमवार है और दुर्लभ शाम मिली है मैं उसका पूरा उपयोग करना चाहता हूं। खयाल आता है कि एक मित्र से मिला जाए, फिर सोचता हूं कि जिसने महीनों से खबर तक नहीं ली, जिससे हर बार हाल-चाल जानने की पहल मैंने ही की, उसे क्यों तकलीफ दी जाए।
पत्नी गांव से लाई गई लाई(भूजा) गर्म करके दे गई है।
स्पीकर की आवाज बढ़ा देता हूं।
और एक दिन निकल गया आखिर।
हाल माज़ी में ढल गया आखिर।
मन की गतिविधि और बढ़ाना हो तो टीवी या अखबार पढ़ना प्रारम्भ कर दीजिये। निसंदेह कुछ को इसी छीछालेदर में आनन्द आता है, हम भी दूर बैठ दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में विश्वगति समझते रहते हैं, दिन पकड़ कर बैठे रहते हैं कि कहीं निकल न जाये।
ReplyDeleteआपको नहीं लगता कि दुनिया लगातार बदतर व बदसूरत होती जा रही है?
ReplyDeleteइसका तो बाकायदा अहसास होता है ...अपने ही आस पास ,
आपके ये विचार हर संवेदनशील मन के विचार हैं
पूर्व में मैं भी इस पत्रकारिता के पेशे से गुजर चुका हूँ इसलिये आपकी मनोदशा को भलीभांति समझ सकता हूँ.....
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