ग़ज़ल की न तो समझ है, न ही जानकारी। फिर भी ग़ज़ल पर गाहे-बगाहे हाथ जरूर
आजमाता हूं। तमाम नाकामियों के बावजूद ग़ज़ल की कशिश है की कम होने का नाम ही
नहीं लेती। ऐसी ही एक कोशिश के दौरान निकली चंद पंक्तियाँ पेश-ए -खिदमत
हैं। मेरी कोशिश कितनी कामयाब हुई, बताने की मेहरबानी करें।
कितने पत्थर, कितने फूल
ऐ दिल इस पचड़े को भूल ।
वक्त भी देखो कैसा आया
फूलों जैसे खिले बबूल ।
फैली खबर की तुम आओगे
बेमौसम खिल उठे फूल ।
तेरा-मेरा एक वहम है
एक बागवां, लाखों फूल।
उसकी बातें सुनी हैं जबसे
बाकी बातें हुईं फिजूल ।
कितने पत्थर, कितने फूल
ऐ दिल इस पचड़े को भूल ।
वक्त भी देखो कैसा आया
फूलों जैसे खिले बबूल ।
फैली खबर की तुम आओगे
बेमौसम खिल उठे फूल ।
तेरा-मेरा एक वहम है
एक बागवां, लाखों फूल।
उसकी बातें सुनी हैं जबसे
बाकी बातें हुईं फिजूल ।
आपको समझ भी है और स्वाद भी। बहुत कम शब्दों में इतना कह कर आपने भविष्य की आहट भी दे दी है।
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