जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है.
जिंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूँ है.
-शहरयार.
Thursday, November 29, 2012
भीतर मैं-बाहर चाँद
भीतर मैं आय-व्यय, पाने -खोने की चिंता के साथ महानगरीय आपाधापी और तनावों से घिरा करवट बदल रहा था बाहर चाँद पूर्णिमा की ज्योत्स्ना बिखराए मुस्कुराता हुआ छत पे टहल रहा था .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति आभार आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध [कानूनी ज्ञान ]पर और [कौशल ]पर .शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता .
उसने सारा जगत देखा है तभी सदा मुस्कराता है, हम अपने में ही गुने धुने रहते हैं..
ReplyDeleteआपकी क्षणिका में आज के जीवन की सच्चाई समाहित है !
ReplyDeleteआभार !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति आभार आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध [कानूनी ज्ञान ]पर और [कौशल ]पर शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति आभार आत्महत्या-प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध [कानूनी ज्ञान ]पर और [कौशल ]पर .शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता .
ReplyDeleteये चांद भी है न जो..मत पूछो मजे से टहलता रहता है ..यहां जमीन पर हमारी आफत आई होती है औऱ वो उपर मजे से घटता-बढ़ता रहता है
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