Saturday, January 21, 2017

पानी के लिए हाहाकार

तमिलनाडु का दूसरा सबसे बड़ा शहर कोवई पेयजल संकट से त्राहि-त्राहि कर रहा है। कुछ महीने पहले तक चार दिन में एक बार नलों में दिखाई देनेवाला पानी पहले सात दिन में एक बार आया और अब बारह दिन में एक बार नमूदार हो रहा है। हालात इतने भयावह हो गए हैं कि शहर के प्रमुख अस्पताल कोवई मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में कई पीडि़तों की शल्य चिकित्सा रोक देनी पड़ी, क्योंकि अस्पताल में पर्याप्त पानी नहीं था। नगर निगम ने टैंकरों से जलापूर्ति के इंतजाम का दावा किया है लेकिन प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा ही है। जलदाय विभाग करे भी तो क्या,

शहर की जीवनरेखा सिरुवानी में पानी नहीं है। स्थिति का फायदा उठाने के लिए पानी के व्यापारियों ने पेयजल के केन की कीमत बढ़ा दी है जिसकी वजह से कच्ची बस्तियों में तो बूंद-बूंद के लिए हाहाकार है। कोढ़ में खाज की तरह गर्मी दस्तक दे रही है। सतह पर तो पानी गायब हो ही रहा है, भूजल स्तर भी नीचे गिर गया है। आरएस पुरम जैसे इलाकों में भवनों में पानी नदारद होता जा रहा है और लोगों को दैनिक क्रियाओं के लिए भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। शहर में पहले सौ से अधिक झीलें थीं जो शहर के तापमान को तो नियंत्रित रखती ही थीं भूजल स्तर को भी थामे रखती थीं। इनमें से आधी अब इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं। कई जलाशय, तालाब व झीलें या तो दम तोड़ चुके हैं या फिर आखिरी सांसें गिन रहे हैं। जो झीलें बची भी हैं वे अतिक्रमण की शिकार हो रही हैं। इस वर्ष उत्तर-पूर्व मानसून के दगा दे जाने के कारण हालात बदतर हो गए। पेयजल संकट का सबसे बड़ा कारण जल संसाधनों का अति उपयोग या दुरुपयोग है। तमिलनाडु जैसे कम बारिश वाले राज्य में वर्षा जल का समुचित संरक्षण नहीं होना आश्चर्यजनक ही नहीं, चिंताजनक भी है। एक ऐसा राज्य जो पानी के लिए पड़ोसी राज्यों के सहयोग, समझौतों, प्राधिकरणों व न्यायालय के आदेशों पर निर्भर करता हो, वहां तो बूंद-बूंद पानी को सहेजने के जतन होने चाहिए थे लेकिन लगता है नीति-नियंताओं को इससे कोई लेना-देना नहीं। इन्हें तो कोई चुल्लूभर पानी दे दे तो अच्छा होगा। सरकार ने सभी जिलों को सूखा पीडि़त घोषित करके और केन्द्र सरकार से ३९,५६५ करोड़ रुपए की मांग करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ली है। रुपए मिल जाएंगे तो सरकार किसानों को रुपए थमा देगी और अगले साल फिर ऐसे ही हालात हुए तो फिर ऐसे ही किसानों की मदद की जाएगी। इस तरह सरकार की मौजूदगी का एहसास बनाए रखा जाएगा। फिर अगले साल का इंतजार किया जाएगा। नागरिकों के भाग्य में फिर उड़ती धूल, बहता पसीना, मुरझाती फसलें और सूखते होठ लिख दिए जाएंगे। कोयम्बत्तूर में एक तो कम बरसात होती है, होती भी है तो सारा पानी बेकार बह जाता है। वर्षा जल का संग्रहण व संरक्षण करके बरसाती पानी का दोबारा उपयोग करने के समुचित इंतजाम किए बिना इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आवश्यक है कि वर्षा का जल बचाने के लिए सरकार अपने स्तर पर भी प्रयास करे और आम लोगों को, विशेषकर भवन मालिकों को वर्षाजल संग्रहण के लिए प्रोत्साहित करे। जल संरक्षण की तकनीक ही नहीं, इसका महत्व भी आम लोगों को बताया जाए और प्रोत्साहन राशि देकर जन सहभागिता को बढ़ाने का प्रयास किया जाए। विद्यार्थियों को पर्यावरण के साथ ही जल संरक्षण के बारे में शिक्षित व जागरूक किया जाना चाहिए। तालाबों, झीलों के पुनरोध्दार का अभियान चलाकर लोगों को  पानी का दुरुपयोग नहीं करने के लिए प्रेरित किया जाए। जल संरक्षण हमारी पहली चिंता होनी चाहिए, यह समय की मांग है और आनेवाली पीढिय़ों के लिए पानी बचा रहे, यह हमारी जिम्मेदारी भी है।

Wednesday, January 11, 2017

प्रकृति और परमात्मा की मिलन स्थली


संतोष पाण्डेय@कोयम्बत्तूर.




तीन तरफ पश्चिमी घाट की पहाडिय़ां, हरियाली को चूमती, इठलाती, सरसराती हवा। महानगरीय प्रदूषण से अछूती, जंगलों में पली हवा जिसे प्राणों में भर लेने का मन करे और भीतर उतरते ही रोम-रोम के पुनर्नवा होने का एहसास हो। और फिर सामने भगवान कार्तिकेय का मंदिर। कार्तिकेय को दक्षिण मेंं मुरगन कहा जाता है। कोयम्बत्तूर से लगभग १५ किलोमीटर की दूरी बना यह मंदिर मरुदमलई मुरगन मंदिर के नाम से जाना जाता है। मरुद और मलई को मिलाकर बना यह शब्द बताता है कि पश्चिमी घाट की इन पहाडिय़ों पर मरुत के पेड़ बहुतायत में हैं जिनकी वजह से इसे मरुदमलई कहा गया। मरुद के पेड़ जिन्हें अर्जुन भी कहा जाता है, अपने औषधीय गुणों के लिए जाने जाते हैं। हृदय के रोगों में विशेष लाभकारी माना जाता है। मरुद के छितराए हुए पेड़ों की अनंत श्रृंखला के बीच बना यह मंदिर भी हृदय को असीम शांति और सुकून से भर देता है। ‘जंगल में मंगल’ की कहावत किसी ऐसे ही मंदिर को देखकर बनी होगी। मंदिर द्रविण स्थापत्य कला का नमूना तो है ही, उस अदृश्य शक्ति के प्रति मनुष्य की आस्था का बेजोड़ प्रमाण भी है, जिसे विभिन्न नामों से पुकारा या पूजा जाता है। ‘हरोहरा’, ‘हरोहरा’, ‘हरोहरा’ का उच्चारण करते हुए काले शर्ट व काली लुंगी पहने मंदिर की सीढिय़ां चढ़ते लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। सबरीमाला मंदिर जानेवाले श्रध्दालु सबरीमाला जाने से पहले यहां पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। सीढिय़ां चढ़ते ही सबसे पहले विघ्नविनाशक का मंदिर है। यहां पूजा-अर्चना के बाद ऊपर चढि़ए तो भगवान कार्तिकेय के दर्शन होते हैं। इतना प्रसिध्द और प्राचीन मंदिर, फिर भी भिखारी दिखाई नहीं देते, अच्छा लगता है। मंदिर से कोयम्बत्तूर शहर का विहंगम नजारा दिखाई देता है। ऐसा लगता है जैसे समूचा शहर मुरगन के चरणों में बसा हो और उनके समक्ष नतमस्तक हो। शाम के साथ पहाडिय़ों की खूबसूरती बढऩे लगती है। ढलता सूरज पहाडिय़ों की आभा को और भी बढ़ा देता है। जैसे सूरज पहाडिय़ों को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीष देता हुआ उनके माथे पर सिंदूर लगा देना चाहता हो। शाम ढलते ही आकाश में चांद उगता है। भरे-पूरे चांद को देखकर पहाडिय़ां दुल्हन की तरह सज उठती हैं। यहां प्रकृति की सुषमा चरम पर है और ऐसा लगता है जैसे प्रकृति और परमात्मा की मिलन स्थली हो।
उत्तर में कार्तिकेय व दक्षिण में मुरुगन नाम से लोकप्रिय भगवान शंकर के पुत्र का यह मंदिर बारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ। पेरूर पुराणम की एक कथा के अनुसार आसुरी प्रवृत्तियों के नाश के लिए भगवान शंकर के आदेशानुसार भगवान मुरगन का आगमन हुआ। मंदिर का महात्म्य ऐसा है कि प्रतिदिन यहां हजारों लोग खिंचे चले आते हैं। इनमें स्थानीय लोगों के साथ ही कोयम्बत्तूर व आसपास के शहरों में बसे उत्तर भारतीय लोग भी दिखाई देते हैं। कोयम्बत्तूर आनेवाले विदेशी पर्यटकों के लिए भी मंदिर आकर्षण का केन्द्र है।
मरुदमलई मुरगन मंदिर जाने के लिए कोयम्बत्तूर के सभी प्रमुख इलाकों से बस की सुविधा है जो पहाड़ी के पास तक जाती है। वहां से मिनी बस में बैठकर दस रुपए किराए में मरुदमलई पहुंचा जा सकता है। बस से न जाना चाहें तो सीढिय़ों के सहारे भी यह दूरी तय की जा सकती है। सीढिय़ां लगभग ८५० हैं। शहरों में किसी इमारत की सीढिय़ां पहाड़ सी लगती हैं यहां पहाडिय़ों की सीढिय़ां भी चंद कदमों में सिमट जाती हैं। यह मरुद के पेड़ों से छनकर आती हवा का कमाल है, भगवान मुरुगन की कृपा है या कुछ और, यह तो मुरगन ही जानें। मंदिर के पट सुबह साढ़े पांच बजे खुल जाते हैं और दोपहर एक बजे बंद हो जाते हैं। दोपहर दो बजे के बाद शाम साढ़े आठ बजे तक पूजा-अर्चना की जा सकती है।
पम्पाती सिध्दार गुफा
मंदिर से नीचे उतरते ही पूर्वी तरफ एक संकरा रास्ता पम्पाती सिध्दार गुफा की ओर ले जाता है। कहा जाता है कि यहां सिध्दों ने ध्यान किया और सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त की। सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का यही संदेश यहां हवा के साथ कानों में सरगोशियां करने लगता है। संसार के सुख तुच्छ और फीके लगने लगते हैं। मन करता है, बस बैठे रहें, देखते रहें, अघाते रहें। शहरों की आपाधापी में मनुष्य ने क्या खोया है, इसका एहसास यहीं होता है। अंत में फिर आने, बल्कि फिर-फिर आने की कामना मन में लिए लौटना पड़ता है।

Wednesday, December 14, 2016

गांव में आ रहा बदलाव








इस बार गांव का मौसम बेहद सुहावना था। सर्दी अपने पांव पसार रही थी। न्यूनतम तापमान दस डिग्री के आसपास बना हुआ था। कुछ दिनों बाद कोहरे ने भी रंग दिखाया। ऐसे मेंं ताजी अदरक की चाय की चुस्कियां, लिट्टी-चोखा, मित्रों से मुलाकातें और दो-चार दिन के अंतराल के बाद निमंत्रण अर्थात् कचौड़ी-सब्जी का मजा ही कुछ और था। पालक सस्ती तो थी ही, ताजी भी थी, यहां कोयम्बत्तूर में १३० रुपए किलो मिलनेवाली मटर वहां महज ४० रुपए किलो में। वह भी ताजी और स्वाद ऐसा कि कच्चे ही चबाने का मन करे। आलू दस रुपए किलो मिल रही थी। बाजार से सब्जी लेकर आते समय खुशी होती थी। सौ रुपए लेकर जाओ तो झोला भरकर सब्जी लाओ। ताजी और स्वाद से भरपूर सब्जियां। बड़े शहरों में न तो यह स्वाद है और न ही पौष्टिकता।
गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूलों में अब बच्चों की संख्या घट रही है। ज्यादातर बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं। क, ख, ग के बजाय एबीसीडी सीखने को प्राथमिकता दे रहे हैं। सुबह हार्न बजाती हुई स्कूल वैन पहुंचती है और शाम को घर के पास छोड़ देती है। फीस ज्यादा है लेकिन ऐसे स्कूल अब प्रतिष्ठा से जुड़ गए हैं। लोग बताते हैं कि अब वही बच्चे सरकारी स्कूल जाते हैं जिनके अभिभावक बेहद दीन-हीन हैं।
गांव के बाहर की सडक़ मरम्मत होने के बाद से ही दुर्घटना वाली सडक़ बनती जा रही है। आए दिन भिड़ंत होती रहती है। कई लोगों की जान जा चुकी है। गांव में बारात आई थी। कोहरा भी घिरा था। भिड़ंत हुई दो लोगों को मरहम-पट्टी करानी पड़ी।
गांव में आ रहा बदलाव सुबह ही दिखाई देना लगता है। मौसम बरसात का हो, या शीतलहर चल रही हो, गर्मी के दिन हों या कोहरे के कारण दस मीटर की दूरी पर भी कुछ भी देखना मुश्किल हो, इन सबको परास्त करते हुए लोग अब अलसुबह ही सडक़ पर दिखाई देने लगते हैं। कभी राजरोग कहे गए शुगर और बीपी जैसे रोग अब मध्यमवर्ग को चपेट में लेने लगे हैं। इनसे बचने या नियंत्रित रखने के लिए टहलने निकल पड़ते हैं। इनमें वे महिलाएं भी शामिल हैं जिनके पहले की पीढिय़ां जांत से गेहंू पीसती थीं, चकरी पर दाल दलती थीं और जीवनशैली से जुड़े रोगों के बारे में जानती भी नहीं थीं।
एक दिन टहलने जा रहा था तो देखा कि एक लडक़ा साइकिल से ईंट ढो रहा था। वह भी साइकिल के डंडे वाले हिस्से के नीचे। आसान नहीं था लेकिन कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है।

Monday, October 24, 2016

बुढिय़ामाई

आज पत्नी से बात करते हुए अचानक मुंह से निकला कि इस बार गांव चलेंगे तो बुढिय़ामाई के लिए कुछ ले चलेंगे।
बुढिय़ामाई! शब्द सहज ही मुंह से निकल गया था। अपनी आजी(दादी मां) को हम लोग बुढिय़ामाई कहते थे।
पत्नी ने भी वही शब्द दोहराया और मेरा मुंह देखने लगी।
बुढिय़ामाई! जिसे गए हुए दो साल होने को आ रहे हैं। आज भी अचानक याद आ जाती है। उसका चेहरा, सन की तरह बाल, लम्बी-लम्बी अंगुलियां, ममता से भरी आंखें और आशीर्वाद में गंगा-जमुना की तरह बढऩे का आशीर्वाद देती हुई।
बुढिय़ामाई १९ वर्ष की आयु में जो विधवा हुईं तो सुखों से जैसे जिंदगीभर के लिए नाता टूट गया और संघर्ष हमसफर बन गया। घोर गरीबी, हर कदम संघर्ष, हर सांस पीड़ा। लेकिन मजाल है कि चेहरे पर कभी दर्द छलका हो। हमेशा दर्द को पीती-परास्त करतीं रहीं। ९२-९३ वर्ष की उम्र में जब मौत हुई, तब तक न तो शुगर था और न ही बीपी।
पुरुष सत्तात्मक समाज में १९ वर्ष की विधवा, वह भी ब्राह्मण परिवार की। कितना कठिन रहा होगा जीवन। मैंने बचपन में होश संभाला तो पिता जी दूसरी शादी कर चुके थे और चाचा जी अलग दूसरे गांव में रहते थे। एक पैसे की भी आमदनी नहीं थी और खेती-बारी से इतना नहीं होता था कि गुजारा हो सके। हम लोगों को पता नहीं था कि अन्य बच्चों से हमारा भाग्य अलग है। हम भी दूसरे बच्चों की तरह खिलौनों, कपड़ों, खाने-पीने की वस्तुओं की जिद करते और दादी मां उस जिद को पूरा करती थीं। कैसे, कहां से, भगवान जानें। पिता, दादा या दादी सब कुछ बुढिय़ामाई ही थीं।
दादी मां किसी पुरुष की तरह खटती थीं। दिन हो या रात, अंधेरा हो या बरसात, कुछ भी उनके कदमों को रोक नहीं पाता था। गजब की जीवंतता थी। कहते हैं, जिनके दिल साफ होते हैं, वे दूसरों पर सहज ही विश्वास कर लेते हैं। बुढिय़ामाई ऐसी ही थीं। सब पर विश्वास करतीं थीं।
एक बात जो अब लोगों में दिखाई नहीं देती, वह यह कि बुढिय़ामाई सबसे ऐसे हुलस कर मिलती थीं, जैसे वह भगवान हों। बुढिय़ामाई के बारे में लिखने बैठता हूं तो दिल में कुछ उमडऩे-घुमडऩे सा लगता है। इतनी सारी यादें जीवंत हो उठती हैं और मन करता है, रोता रहूं।
बुढिय़ामाई बहुत बड़ी थीं। दुखों के पहाड़ के समक्ष अविचलित, अडिग, अपराजित। आदमी या औरत का कद ऐसे ही तो तय होता है, कि वह दुखों के सामने किस रूप में नजर आया। भरभराकर गिरा या चट्टान की तरह खड़ा रहा। जीवटता ही तो जिंदगी को वास्तविक आकार देती है। मेरा तो मानना है कि दुखों के बिना जीवन में बहुत बड़ी कमी रह जाती है। दुख जीवन का सबसे चटख, गाढ़ा रंग है, मांजता है, सजाता है, पकाता है जैसे धूप में पकी हुई बालियां या चूल्हे में पकती हुई रोटी।

Monday, October 17, 2016

फिर कोई ‘मुच्छड़’ नहीं होगा!

शत-शत नमन् और श्रध्दांजलि
‘बाबू’ के नहीं रहने की खबर व्हाट्सएप से मिली। जून में गांव गया था तो मन में एक चाह थी कि बाबू के दर्शन कर आऊं। पता नहीं, फिर भेंट हो न हो। बाबू के पांव छुए तो दिमाग पर थोड़ा सा जोर देने के बाद उन्होंने थोड़ी देर में ही पहचान लिया था। मुझे बहुत खुशी हुई थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस इलाके का हूं वहां पिता को भी सम्मान से ‘बाबू’ कहते हैं। मैं भी उन्हें ‘बाबू’ कहता था। सच तो यह है कि पिता जैसा प्यार यदि किसी से मिला तो उन्हीं से मिला इसलिए एक अदृश्य अपनापन जुड़ा रहा। जब उनके साथ रहता था तो कभी उन्होंने इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि मैं उनका सगा बेटा नहीं था और मैं भी सदा श्रध्दा से नतमस्तक रहा। निम्हांस में जब वे भर्ती थे तो मैंने उन्हें आम खिलाया था। मुझे जिस संतोष की अनुभूति हुई थी, वह शब्दातीत है। जिस आदमी ने हजारों बार खिलाया हो, उसे एक बार भी कुछ खिलाना मेरे लिए बेहद सौभाग्य का पल था। ‘बाबू’ की ढेर सारी आदतों में एक आदत यह भी थी कि वे जब भी कुछ खाते थे, दूसरों को खिलाकर ही खाते थे। ऐसी उदारता कितने लोगों में है?
गांव गया था तो पिछले कुछ सालों से अस्वस्थ चल रहे ‘बाबू’ चारपाई पर लेटे थे। हमेशा दूसरों की मदद की, अब दैनिक क्रियाओं के लिए भी दूसरे पर निर्भर थे। यह देखना बेहद दुखद था। यह उम्र की क्रूरता थी या क्या था, समझ नहीं पाया। कहते हैं, ईश्वर बड़ा दयालु होता है। तो फिर ‘बाबू’ के साथ यह अन्याय क्यों?यह प्रश्न मेरे ही मन में नहीं, उन्हें जाननेवाले बहुत सारे लोगों के मन में उठता था। बाबू अजातशत्रु थे। शायद ही उनकी किसी से कभी दुश्मनी हुई होगी। मारवाडिय़ों में वे ‘भैयाजी’ नाम से लोकप्रिय थे। मुझे नहीं लगता कि ऐसी इज्जत किसी और ने कमाई होगी। यूपी वाले उन्हें ‘मुच्छड़’ कहते थे। मूछें उनके चेहरे पर खूब फबती थीं। लम्बा-चौड़ा कद, बड़ी-बड़ी आंखें और चेहरे का तेज और रोब बढ़ाती मूंछें। मूंछें शान, सम्मान और गरिमा की प्रतीक हैं तो ‘बाबू’ से ज्यादा मूंछों का हकदार शायद ही कोई हो। एक बात तो तय है कि अपने समाज में शायद ही फिर कोई ‘मुच्छड़’ हो। बात सिर्फ मूंछों की नहीं, वह उदारता, वह धर्म परायणता, वह करुणा कोई कहां से लाएगा?
‘बाबू’ सभी के अपने थे। यूपी से कोई भी आता, उसके लिए दिल और दरवाजे दोनों खोल देते थे। कितने लोगों को शरण दी, कितने लोगों के सहारा बने। कितनों को नौकरी-धंधे पर लगाया, अंगुलियों पर गिनना संभव नहीं है। मेेरे परिवार के लिए तो मसीहा ही थे।
आज उनके नहीं रहने की खबर पर यादों का एक बवंडर सा उठ रहा है। खबरों की दुनिया में जीने की आदत पड़ गई है लेकिन यह महज खबर नहीं है। कयोंकि वे सिर्फ तारकेश्वर नाथ तिवारी, ‘मुच्छड़’, ‘भैयाजी’ ही नहीं, ‘बाबू’ भी थे। ‘बाबू’ घावों पर मलहम थे, भूख लगने पर रोटी थे और थे एक विशाल बटवृक्ष जिसकी छांव जीवनपर्यंत नहीं भूल पाऊंगा।
उस महान आत्मा को शत-शत नमन् और श्रध्दांजलि।

Sunday, June 1, 2014

उत्तम प्रदेश बनता उत्तर प्रदेश

लगता है सपा सरकार उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाकर ही दम लेगी। प्रदेश में बलात्कार के मामलों में जिस तरह से वृद्धि हो रही है, उससे तो यही लगता है कि सरकार एक खास वर्ग के लिए प्रदेश को उत्तम बना ही देगी। कुछ समय पहले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने 'लड़के हैं, गलती हो जाती हैÓ कहकर जो जमीन तैयार की थी, अब उसमें फसल लहलहाने लगी है। सरकार ने सूबे में इतना अनुकूल माहौल बना दिया है कि बलात्कार की घटनाओं की संख्या प्रतिदिन दस तक पहुंच गई है। इस मामले को लेकर प्रदेश के डीजीपी का हालिया बयान गौरतलब है। उन्होंने प्रदेश की जनसंख्या के लिहाज से इसे बेहद कम माना है। ऐसे में संभावना तो यही है कि माननीय मुलायम सिंह जी भी इससे खुश नहीं होंगे।
लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद मुख्यमंत्री ने कहा था कि सरकार के विकास कार्यों का समुचित प्रचार नहीं हो पाया। कहीं इस मामले में भी तो ऐसा ही नहीं हैं। सरकार ने जो अनुकूल माहौल बनाया है उसका लाभ लेने के लिए लोग इतनी कम संख्या में क्यों आगे आ रहे हैं। सूबे में बलात्कार के मामलों की संख्या का मुश्किल से दो अंकों में पहुंचना यह साबित करता है कि अभी भी लोगों में झिझक है। लगता है, अभी भी कुछ लोग कानून-व्यवस्था जैसी किसी चीज की मौजूदगी मान रहे हैं। जबकि बलात्कार के मामलों को लेकर सरकार का रवैया बिल्कुल स्पष्ट है। मुख्यमंत्री जी से एक महिला पत्रकार ने जब महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सवाल पूछा तो उन्होंने कहा कि आप तो सुरक्षित हैं न। मतलब यह कि जब तक एक भी महिला सुरक्षित है, सरकार नहीं मानेगी कि बलात्कार हो रहे हैं।
बलात्कार के मामलों में वृद्धि के लिए सरकार सिर्फ नागरिकों के उत्साह पर ही निर्भर नहीं है। पुलिसकर्मी भी इसमें सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं और भरपूर योगदान कर रहे हैं। बदायूं वाले मामले को ही देखिए, पांच आरोपियों में से दो पुलिसकर्मी हैं। फिर लोगों को किसका और कैसा भय है। इस तरह की घटनाओं से पुलिस की एक अलग पहचान बन रही है। सही भी है, पुलिसकर्मियों को यदि नाम कमाने का मौका मिलेगा तो वे पीछे क्यों रहेंगे। कानपुर में एक दारोगा ने भी कोशिश की लेकिन नागरिकों ने पिटाई करके उसके उत्साह पर पानी फेर दिया।
मालूम हो कि अभी पिछले साल ही सपा के एक विधायक महेन्द्र सिंह को गोवा में रंगरलियां मनाते हुए गिरफ्तार किया गया था। हो सकता है, इसके बाद राज्य सरकार को लगा हो कि प्रदेश में ही बेहतर माहौल बनाया जाना चाहिए। सरकार इसमें कामयाब हो रही है, इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए।

Monday, May 19, 2014

एक नए युग का सूत्रपात

चुनाव समाप्त हो गया । फोड़े की तरह दुखता  चुनाव। कांटों की तरह चुभता  चुनाव। टीवी खोलते डर लगता था। काट देने, बांट देने की बातें होती थीं। इतना भयानक, ऐसा डरावना चुनाव पहले तो नहीं देखा गया। जातियों का गणित था, मजहबों का खेल था। कोई कौम की भलाई के अलावा कुछ सोचने को तैयार नहीं था तो कोई जातिवाद की कीचड़ भरी राह पर चलने में ही अपना हित सुरक्षित मान रहा था। राजनीतिक दल वोट बैंक को सुरक्षित रखने की चालें चल रहे थे तो लोग हजार-हजार के नोट पर खुद को बदल रहे थे। आनेवाले चुनावों में क्या होगा, यह सोचकर ही सिर चकराता था। यह कैसा देश बना डाला हमने, जिसमें सब कुछ है लेकिन देश गायब है।
 

बहरहाल, कहते हैं, रात जितनी अंधेरी होती है, सुबह उतनी ही रोशन। चुनाव परिणामों ने सारी गंदगी साफ कर दी। जातियों के किले ढह गए। मजहबी राजनीति को लोगों ने दफना दिया। स्वतंत्र भारत के चुनाव में पहली बार यह साबित हुआ कि समाज को टुकड़ों में बांटकर राज करनेवाली ताकतें परास्त हो सकती हैं। तुष्टिकरण के सहारे फलने-फूलनेवाली पार्टियों का खात्मा हो गया। बंटा हुआ समाज ही इनकी जीत का कारण बनता रहा है। इस बार ऐसा नहीं हुआ। यह लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है।
 

ईमानदारी और देशभक्ति के जज्वे के साथ खड़े हुए एक आदमी ने  लोगों में ऐसा विश्वास पैदा किया कि सोच बदल गई। लोग छुद्रताओं से ऊपर उठे और कई स्यंभू नेताजीओं का किला ढह गया। जातीय राजनीति के छोटे-मोटे जीव जंतु ही नहीं, पूरा का पूरा हाथी ही साफ हो गया। लोगों ने तो जैसे भ्रष्टाचार के राजाओं को हराने की ठान ली थी तभी तो समर्थन की शर्त पर देश का खून चूसती आई कई पार्टियां खाता भी नहीं खोल सकीं।
 

निश्चित ही यह एक नए युग का सूत्रपात है। यह एक नई आजादी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जिन काराओं से देश मुक्त हुआ है अब वे फिर कभी देश को कैद नहीं कर पाएंगी। इसके लिए हमें जागरूक रहना पड़ेगा।