Wednesday, January 11, 2012

यह कैसा स्नान

इसमें दो राय नहीं कि आस्था और श्रध्दा विधायक चिंतन के प्राण हैं और इनसे जीवन का उन्नयन होता है। आशा और विश्वास ही जीवन के आधार हैं लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम कूप-मंडूक बन जाएं और तर्क और विवेक को तिलांजलि देकर अंधश्रध्दा को बढ़ावा दें। दक्षिण कन्नड़ जिले में 'मडे स्नान' नामक अनुष्ठान का चौतरफा विरोध उचित ही कहा जाएगा। आखिर पत्तलों पर बचे हुए जूठे भोजन पर लोटने से त्वचा रोगों से मुक्ति कैसे संभव है?
 यह एक विडम्बना ही है कि एक ओर मनुष्य प्रकृति के गूढ़तम रहस्यों का उद्‌घाटन कर रहा है वहीं दूसरी ओर टोने-टोटके के सहारे उसकी चेतना को जड़ बना देने की कोशिशें भी जारी हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब परम्परा और श्रध्दा के नाम पर कुछ तथाकथित बुध्दिजीवी भी इनका समर्थन करते नजर आते हैं। किसी भी चीज पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेना और भेड़चाल में शामिल हो जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। इस तरह की प्रथाएं हमारे बौध्दिक दिवालिएपन की सबूत हैं और ऐसी घटनाएं हमें पूरी दुनिया में हंसी का पात्र बना देती हैं।
आश्चर्य है कि सरकार अभी तक इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है। यह अलग बात है कि सरकारी प्रतिबंध लगानेभर से ऐसी पोंगापंथी प्रथाओं से मुक्ति मिल जाएगी, ऐसा नहीं माना जा सकता। पूर्व में भी सरकार के निर्देश पर इस पर रोक लगाई गई थी लेकिन परिणाम आशानुरूप नहीं रहे। इसके लिए सामाजिक जागरूकता आवश्यक है जिसमें सभी को सहभागी बनना होगा। जिन लोगों का इससे हित जुड़ा है और जिनके अंहकार का पोषण होता है, उन्हें भी हठधर्मिता छोड़ जागरूकता फैलानी चाहिए। तभी सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया का स्वप्न साकार किया जा सकेगा।
मडे स्नानः कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले स्थित कुक्के सुब्रमण्य मंदिर का एक ऐसा अनुष्ठान है जो सदियों पुराना है और जिसमें सैकड़ों लोग केले के पत्ते पर ब्राह्मणों के भोजन कर लेने के बाद  उसी पत्ते पर लोटते हैं। राज्य के कई अन्य मंदिरों में भी यह अनुष्ठान किया जाता है।