सुख- समृध्दि, शांति, सौहार्द के दीप जलें हर दिशा में फैला उजास ही उजास हो.
आँखों में उम्मीद और दिलों में मोहब्बत पले सभी कि वाणी में गीत-ग़ज़ल सी मिठास हो.
सुन्दर, सुखद, शुभ फलदायी हो वर्तमान उज्ज्वल भविष्य का भी हमें विश्वाश हो
सिर्फ अपनी ही चाह, तो भटकाएगी राह दूसरों की ख़ुशी में भी ख़ुशी का एहसास हो.
ब्लॉगर मित्रों सहित सभी को दीपोत्सव की शुभकामनायें.
विकास की बुलंदियों को छू रहे बेंगलुरु के लिए आज का दिन ऐतिहासिक है. तमाम
विवादों, विरोधों और परीक्षणों से गुजरने के बाद लगभग 1,540 करोड़ की
लागत से आख़िरकार मेट्रो रेल पटरी पर दौड़ी.इसके साथ ही बेंगलुरु अत्याधुनिक
परिवहन व्यस्था वाला देश का तीसरा महानगर बन गया. यह एक संयोग ही है की
मेट्रो रेल सबसे पहले उन महानगरों में चल रही है जो सर्वधर्म समभाव व्
बहुरंगी संस्कृति के पोषक हैं. ·कोलकाता व् दिल्ली की तरह बेंगलुरु में भी
पूरे देश की सांस्कृतिक विविधता के दर्शन होते हैं. यही इसके बेजोड़ विकास
का कारण भी है. जहाँ तक बेंगलुरु की परिवहन व्यवस्था का सवाल है, वर्ष 1940
में बेंगलुरु ट्रांसपोर्ट कंपनी की स्थापना के साथ ही सार्वजनिक यातायात
व्यवस्था की शुरुआत हुई थी, लगभग 98 सरकारी बसें सड़कों पर दौड़ी थी. लगभग
71 साल बाद परिवहन व्यस्था में व्यापक बदलाव हो रहा है.परिवहन विकास की
धुरी है.अधिकांश सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ क्योंकि वहां
आवागमन के साधन सुलभ थे. आधुनिक समय में भी आधारभूत ढांचा ही विकास की
मुख्य शर्त है.
नम्मा मेट्रो का जोरदार स्वागत स्वाभाविक है. यह भारी यातायात से कराहते शहर के लिए उम्मीद लेकर आई है.स्वागत है नम्मा मेट्रो.
जगजीत सिंह जग को जीत कर चले गए.कल से ही सोच रहा हूँ कैसे श्रध्दासुमन
अर्पित करूं. नहीं करूँगा तो एक अपराधबोध रहेगा क़ि मुझसे इतना भी न
हुआ.पहली बार किसी धारावाहिक में उनका गीत सुना था, हम तो हैं परदेश में,
देश में निकला होगा चाँद. डॉ राही मासूम राजा के गीत को जगजीत ने इस अंदाज़
में गाया क़ि, लगा जैसे विरह वेदना को जुबान मिल गई. पहली बार जब टेप
रिकॉर्डर खरीद रहा था तो इस बात क़ि ख़ुशी थी क़ि अब जगजीत के कैसेट खरीद
सकूँगा.कई बार उनकी कैसेट खरीदना खाना खाने से ज्यादा जरूरी लगा.उस दौर में
और भी कई ग़ज़ल गाने वाले थे लेकिन जगजीत उनसे अलग ही नहीं, ऊपर भी थे.
संघर्ष के दिनों में बाज़ार के सामने झुके लेकिन शोहरत क़ी बुलंदी पर
पहुँचने के बाद बाज़ार क़ी फिक्र ही नहीं क़ी. शराब और शबाब के दायरे से
ग़ज़ल गायकी को बाहर निकाला. नए वाद्यों का प्रयोग किया. सारंगी, हारमोनियम की जगह वायलिन और गिटार का प्रयोग हुआ तो ग़ज़ल मुस्कुरा उठी. सबसे बड़ी बात, जगजीत ने ग़ज़ल को आम आदमी की दिन चर्या से जोड़ा. ग़ज़ल उसके उल्लास की गवाह बनी तो सपनों और संघर्ष की साथी भी.अब मैं राशन क़ी कतारों में नज़र आता हूँ.
अपने खेतों से बिछड़ने क़ी सजा पाता हूँ. जीवन क्या है चलता फिरता एक
खिलौना है, दो आँखों में एक से रोना एक से हँसना है. मिली हवाओं में उड़ने
क़ी वो सजा यारों कि मैं जमीन के रिश्तों से कट गया यारों, वो रुलाकर हंस न
पाया देर तक, जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक, जाने कितनी गज़लें हैं जो
उन्होंने बाज़ार को ठेंगे पर रखकर गायीं. माँ सुनाओ मुझे वो कहानी, जिसमे
राजा न हो, न हो रानी.जैसी गजलों को संगीतबध्द करते हुए जगजीत बाज़ार को
उसकी औकात बता रहे थे. उनकी ग़ज़लों में आम आदमी का दर्द, उसकी ज़द्दोज़हद,
उसकी जिद और जूनून को अभिव्यक्ति मिलती थी.यही कारण है कि जगजीत को सुनना
अपने भीतर उतरना, खुद से रूबरू होने जैसा था. जवान बेटे की मौत के बाद उनकी
आवाज़ की कशिश जैसे और बढ़ गई. मुश्किलें इतनी पड़ी हमपे की आसां हो गई गा
ही नहीं रहे थे, जी रहे थे. हजारों ख्वाहिशे ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम
निकले, मिर्ज़ा ग़ालिब की यह ग़ज़ल जैसे जगजीत की आवाज़ के लिए बेक़रार थी.
गज़ल का हर लफ्ज़ जगजीत की आवाज में उतरकर अपनी रूह से मिल जाता था या यूँ
कहें की उनकी गायकी का स्पर्श पाकर ग़ज़ल वैसे ही सज जाती थी जैसे सिन्दूर
पाकर कोई सुहागिन.
जगजीत के जाने से ग़ज़ल वैसे ही अकेली हो गई है जैसे भरे मेले में वह हाथ छोड़ जाये जो उसे मेले में लाया था.
ऊपर एक ग़ज़ल का लिंक दिया गया है, सुनें, ग़ज़ल सचमुच दिल को छू लेगी.